मंगलवार, 18 अक्तूबर 2016
बाल कविता - पानी और धूप - सुभद्राकुमारी चौहान
कविता का अंश...
पानी और धूप
अभी अभी थी धूप, बरसने
लगा कहाँ से यह पानी।
किसने फोड़ घड़े बादल के,
की है इतनी शैतानी।
सूरज ने क्यों बंद कर लिया,
अपने घर का दरवाजा़।
उसकी माँ ने भी क्या उसको,
बुला लिया कहकर आजा।
ज़ोर-ज़ोर से गरज रहे हैं,
बादल हैं किसके काका।
किसको डाँट रहे हैं, किसने
कहना नहीं सुना माँ का।
बिजली के आँगन में अम्माँ,
चलती है कितनी तलवार।
कैसी चमक रही है फिर भी,
क्यों खाली जाते हैं वार।
क्या अब तक तलवार चलाना,
माँ वे सीख नहीं पाए।
इसीलिए क्या आज सीखने,
आसमान पर हैं आए।
एक बार भी माँ यदि मुझको,
बिजली के घर जाने दो,
उसके बच्चों को तलवार,
चलाना सिखला आने दो।
खुश होकर तब बिजली देगी,
मुझे चमकती सी तलवार।
तब माँ कर न कोई सकेगा,
अपने ऊपर अत्याचार।
पुलिसमैन अपने काका को,
फिर न पकड़ने आएँगे।
देखेंगे तलवार दूर से ही,
वे सब डर जाएँगे।
अगर चाहती हो माँ काका,
जाएँ अब न जेलखाना।
तो फिर बिजली के घर मुझको,
तुम जल्दी से पहुँचाना।
इस अधूरी कविता का पूरा आनंद लेने के लिए ऑडियो की सहायता लीजिए...
लेबल:
दिव्य दृष्टि,
बाल कविता
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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