शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

शिखण्डिनी का प्रतिशोध - 9 (अंतिम भाग) - राजेश्वर वशिष्ठ

कविता का अंश... अर्जुन, भीष्म पितामह, कर्ण और दुर्योधन, मैं जानता हूँ बहुत लोग याद भी नहीं करेंगे मुझे आज इसीलिए मैं चुपचाप खड़ा हूँ भीष्म के ध्वजा-कटे रथ के पास ! मैं क्या करूँगा, शर-शैया पर लेटे भीष्म की परिक्रमा कर, मुझे आवश्यकता नहीं है, अर्जुन की तरह किसी आशीर्वाद की ! हो सकता है भीष्म कह दें, धर्म नष्ट हो जाएगा स्त्री की परछाई से। धर्म के पास उनकी तरह, इच्छा-मृत्यु का वरदान भी तो नहीं ! भीष्म तो अपने पीछे, उस धर्म को ही छोड़ कर जाना चाहते हैं, जिसकी सबसे अधिक खिल्ली उड़ाई, उनके कौरव-पुत्रों ने ही। और उन्हें जीने के लिए सदा, अपनी आत्मा पर रखना पड़ा पत्थर ! अब कब तक लिए रहूँगा, स्थूणाकर्ण यक्ष की पुरुष देह ? मेरी मृत्यु निश्चित है, आने वाले दिनों के युद्ध में। और उसे भी प्रतीक्षा होगी, अपनी पुरुष देह की, प्रतीक्षा होगी, नारी से पुरुष बनने की ! उससे हँस कर पूछूँगा -- शोषक को कैसा लगा शोषित बन कर ? सच कहूँ, मुझे ज़रा भी इच्छा नहीं है मोक्ष की, मुझे चाहिए जीवन का अभिशाप ! मैं बार-बार बनना चाहूँगी स्त्री और जूझना चाहूँगी, उस पुरुष मानसिकता से, जिसने हर युग में किया है स्त्री का शोषण ! उसे स्वर्ण और रत्नों की तरह ही, जुए में लगाया गया है दाँव पर। और फिर भी कहलाए हैं धर्मराज ! मैं चाहूँगा भस्म हो जाएँ वे सभी धर्म-ग्रन्थ, जिनमें स्त्रियाँ बना दी गई हैं देवियाँ। और उन से छीन लिया गया है, मनुष्य की तरह जीने का अधिकार ! वे सभी ग्रन्थ मानवता की व्याख्या के लिए नहीं, पुरुषों के द्वारा अपनी लिप्सा और वासना की पूर्ति के, साधनों के रूप में लिखे गए थे ! आज इस काँपती काली रात में, जी भर कर रोएगा शिखण्डी। जिसका अपमान किया उसके प्रेमी शाल्व ने, जिसकी सहायता के लिए आए परशुराम भी। और अन्ततः हो गए आश्वस्त, कि वे भी इस पुरुष-समाज में, न्याय नहीं दिला सकते एक स्त्री को ! इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Post Labels