मंगलवार, 11 अक्तूबर 2016
कहानी - परछाइयों का जंगल - देवी नागरानी
कहानी का अंश...
माँ को बड़ी मुश्किल से सहारा देकर बस में चढ़ाया और फिर मैं चढ़ी। बस धक्के के साथ आगे बढ़ी तो माँ गिरते-गिरते बच्ची। मैं भी उसे न संभाल पाई। एक दयावान वृद्ध ने अपने स्थान से उठकर उसे बैठने के लिए कहा और माँ एक आज्ञाकारी बालक की तरह सीट पर बैठ गई। मैंने टिकट ली और उसके साथ सटकर खड़ी हो गई। टैंकबंड बस स्टॉप पर उतरना था। कंडक्टर ने दो बार ज़ोर से पुकारा 'टैंकबंड, टैंकबंड' पर मैं अतीत की खलाओं में खो गई रही,जब इसी तरह सहारा देकर माँ ने मुझे पहले चढ़ाया था और बाद में खुद चढ़ी थी। बस चलने लगी पर फिर पाया कि कुछ छूट गया था,कुछ नहीं बहुत कुछ छूट गया था। पिताजी जो साथ साथ आए थे, पीछे रह गए थे। हड़बड़ी में वे चढ़ नहीं पाये या......! माँ का चेहरा ज़र्द, आंखें फटी फटी, गुमसुम आलम में वह बढ़बढ़ाते हुए अचानक चिल्लाने लगी-'अरे बस रोको, बस रोको,मुनिया के पिता पीछे रह गए हैं। अरे भाई रोको मुझे उतरने दो, वे पीछे रह गए हैं।' आवाज शोर में लुप्त सी हो गई और हवाओं से बातें करती बस टैंकबंड बस स्टॉप पर आकर ठहरी। माँ ने एक तरह से मुझे धक्का मारकर नीचे उतारा और खुद जैसे चलती बस से ही कूद पड़ी। पाँव जमीन पर टिक न पाए इसलिए वह औंधे मुंह ज़मीन पर गिर पड़ी, वहीं बस स्टॉप पर लोगों की भीड़ के बीच। जैसे कोई तमाशा हो मदारी का! लोग चलते चलते मुड़ मुड़ कर तिरछे नयनों से उसकी ओर घूरने लगे। सोचते होंगे यह कैसा पागलपन है कि बस अभी रुकी भी न थी कि वह कूद पड़ी। खैर ...तब मैं 8 साल की थी और आज 18 की हूँ, पहले से अधिक समझ सकती हूँ। याद है तब मैंने ज़मीन पर पड़ी माँ का हाथ थामा, और खींचते हुए उसे उठाने का लघु प्रयास किया। माँ सच में उठी और बस की विपरीत दिशा में लगभग दौड़ने लगी और उसका हाथ थामे हुए मैं उसी रफ्तार से साथ-साथ खिंची चली जा रही थी। इतना तो मैं समझ ही पाई कि माँ पीछे छूट गए मेरे पिता को खोजना चाहती थी। 'माँ रुको तो, मुझे दर्द हो रहा है।' मेरी रूआंसी सी आवाज़ फिर से शोर के कोलाहल में खो गई।
'अरी चल, जल्दी चल.... तेरे पिताजी न जाने कहाँ चले गए होंगे?'
'कहाँ जाएँगे माँ, कहीं नहीं जाएँगे, घर लौट जाएँगे।'
'अरी अब चुप भी कर, बस जल्दी चल। तू नहीं जानती.....!'इसके आगे माँ कुछ न कह सकी। आज उस चुपी का अर्थ मेरी समझ में आ रहा है। जो तब नहीं जानती थी अब जानने लगी हूँ। तब आठ आज 18 की हूँ। दस सालों में अपनों का दर्द,उनकी भावनाएं, उनकी खामोशी में चढ़ते -उतरते लावे के उफ़ान को खूब समझती हूँ,उनकी भावनाओं की हर आहट को दस्तक देते हुए महसूस करती हूँ। बड़ी होते-होते सच में बड़ी हो गई हूँ तभी तो माँ को एक बच्चे की तरह हाथ पकड़ कर पहले बस में चढ़ाया और फिर खुद चढ़ी।
'टैंकबंड, टैंकबंड,' कंडक्टर ने दो बार आवाज दी। मैं हड़बड़ाकर मां का हाथ पकड़कर उसे उतारने के पश्चात खुद उतरी, और उसका हाथ थामे हुए ही बस में चढ़ने और उतरने वाले लोगों की भीड़ से स्थगित हुई। हाथ छोड़ने का ख़तरा मैं नहीं ले सकती थी, बिलकुल भी नहीं। जिंदगी के उतार चढ़ाव भी ऊंट सी करवट बदलते,हिचकोले खाते हुए जीवन नौका को आगे तक धकेलते रहते हैं,ठीक उसी तरह जैसे 10 साल पहले माँ मुझे लगभग धकेलते हुए अपने साथ घसीटते हुए,एक पागलपन की हद तक पिताजी को खोज रही थी। यह सच है जब माँ ने कहा था 'तू नहीं जानती' सच मैं सचमुच नहीं जानती थी कि पिताजी घर न जाकर कहीं और चले जाएंगे। इंसान का ठिकाना तो उसका घर होता है। क्या भूला-भटका, थका-हारा, भूखा-प्यासा इंसान किसी राह पर गुमराह हो जाता है तो इस तरह भी खो जाता है जैसे मेरे पिताजी खो गए थे उस दिन? घर के पास आकर माँ ने कुंडी खोली, भीतर झाँका, पिताजी वहां नहीं थे। होते भी कैसे? कुंडी बाहर से बंद थी, मां ने खोली थी!' हे भगवान कहां गए होंगे? अब मैं कहां जाऊं किससे पूछूं? उन्हें तो अपनी खबर नहीं, होती तो घर न लौट आते।" और मां बिलख बिलख कर अपना माथा पीटने लगी। मेरी मासूमियत शायद इस दर्द को, उसके अर्थ को न जानते हुए खुद भी सुबक-सुबक कर रोने लगी। आज जानती हूँ माँ ने वह सफरकिस तरह अकेले काटा होगा, किस तरह तन्हा-तन्हा उस दर्द के आघात को सहा होगा, जिसने कतरा कतरा उसे रुलाया।मैंने बस साथ दिया। आज भी वह घर के किसी कोने में चुपचाप बैठे बैठे न जाने बेरहम जिंदगी के कई किस्सों का गणित करती रहती है। देखकर मेरा रोम रोम सिहर उठता है। क्या बेबस आदमी कुछ भी न कर पाने की स्थिति में ऐसा कुछ भी कर बैठता है या ऐसा हो जाता है अपने आप।बदन कांप गया... फ़क़त याद मात्र से। सिहरन तो तब भी हुई थी, जब मां ने मेरा हाथ झटक कर खुद को छुड़ाया और एक क्रंदन के साथ भीड़ को चीरती हुई पिताजी की लाश पर जा कर झुकी, झुकी क्या,उनपर गिर पड़ी। उनके पीछे-पीछे जाते मैंनेआंखों के सामने देखा वह नज़ारा,खून से सने हुए फर्श पर पड़े पिताजी को। तब नहीं जाना अब जानती हूँ। किसी मोटरकार ने उन्हें टक्कर मारी जिससे वे खुद को न संभाल पाये और गिर पड़े। बस क्षण भर में जिंदगी की हद पार करके मौत की हद में जा पहुंचे। कितनी महीन रेखा विभाजन करती है ज़िंदगी और मौत को! जो होना था वो हुआ। पर बाद में जो हुआ वह नहीं होना चाहिए था। मां जब भी मुझे अपने सामने पाती,पिता की याद में तिल तिल जीते तिल तिल मरते, उनकी कही बातों को दोहराती जो दर्द बन कर उनके हृदय में समा गई थीं। पिताजी को मानसिक रोग ने ग्रस्त कर लिया था, और वे धीरे धीरे बहुत कुछ भूलते जा रहे थे...अपने होने की अवस्था को भी। तब मैं 2 साल की थी,ऐसा माँ ने बताया। और उस हालत में वह न मुझे अकेला छोड़ सकती थी न पिताजी को। सदा घर की कुंडी भीतर से बंद कर लेती ताकि वे कभी भूल से भी दरवाजा खोलकट बाहर न निकल जायें। कभी पिताजी को लेकर डॉक्टर के पास जाना होता तो मुझे भी साथ ले लेती,क्योंकि मैं छोटी थी। आफताब मेरा बड़ा भाई था, आज होता तो 22 साल का नौजवान होता। मुझे 4 साल बड़ा था। ‘वह होता तो यह सब कुछ न होता, खुदा की उसकी ज़्यादा ज़रूरत रही होगी, तभी तो......! आगे की कहानी जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
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दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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