शनिवार, 15 अक्तूबर 2016
कविता - एक दास्तां - डा. छवि निगम
कविता का अंश...
दिन के पास थीं दास्तानें कितनी,
संजोए थी रात भी ख्वाब हसीं।
कहने खूबसूरत किस्से थे,
सुननी रुबाइयां कुछ भीनी।
ठिठक गया चांद,
रुपहली खिड़की पर कुछ पल।
चांदनी छन्न से बिखर गई,
नदियां हंस पड़ीं खिलखिल कर।
जरा अकड़, तन गया पर्वत कोई।
घाटियों ने गहरी सांसें लीं,
दरख्तों ने धरी होंठों पे उंगलियां।
शांत हुए भंवरे,
चंचल तितलियों की धमाचौकड़ी भी,
थम गई बेसाख्ता।
झुक सा गया कुछ आसमां,
धरा चिहुंकी, थरथरा गई।
कुछ दरका, चटखा भी कहीं कुछ।
थोड़ा सा लहका, तो बरस भी गया।
ज्वार उफना...उतर गया।
कुछ अधजला
या अधबुझा सा,
सुलगता ही रह गया।
चांद के दिल में बस इक कसक,
बाकी रह गई।
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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