सोमवार, 31 अक्टूबर 2016
कविताएँ - शैलजा दुबे
कविता का अंश...
ज़िंदगी....मेरी नज़र में
ज़िंदगी एक आइना है,
सुख-दुख का मुआयना है।
खूबसूरत है, खुशगंवार है।
गुल से गुलशन गुलज़ार है।
ज़िंदगी सरगम है, संगीत है।
साजन से रूठा हुआ मीत है।
आलाप है, मल्हार है।
दुल्हन का सोलह श्रृंगार है।
ज़िंदगी सुबह है, शाम है।
आने जाने का नाम है।
कभी मीठी, कभी खट्टी है।
पहली बारिश से भीगी मिट्टी है।
ज़िंदगी नग़मा है, गज़ल है।
खेतों में लहराती फसल है।
कभी तकरार है, कभी प्यार है।
पहली मोहब्बत का इज़हार है।
ज़िंदगी वेदना भरी पुकार है।
मीठी सी थपकी दुलार है।
कभी ईर्षा कभी तिरस्कार है।
कभी सराहना कभी पुरस्कार है।
ज़िंदगी कभी आशा है, कभी निराशा है।
कभी मौन कभी भाषा है।
इसमें यादों के निशान हैं।
बंजर ज़मीन को उपजाता किसान है।
ज़िंदगी कभी बेसुरी, कभी सुरीली है।
सखी, सहेली, हमजोली है।
कभी उतार कभी चढ़ाव है।
कभी हलचल कभी ठहराव है।
ज़िंदगी कविता है, शायरी है।
किसी की यादों को समेटे डायरी है।
ज़िंदगी कभी मुकम्मल, कभी अधूरी है।
विश्वास पर घूमती धुरी है।
पिता की उँगली थामे हुए लाडला है।
माँ के संस्कारों से पल्लवित पौधा है।
ज़िंदगी लुत्फ़ है, खुमार है।
बागों में इठलाती हुई बहार है।
बचपन है,खिलौना है।
माथे पर लगा हुआ डिठौना है।
ज़िंदगी एक खुली किताब है।
फ़लक पर चमकता हुआ आफ़ताब है।
कभी ज़ख्म है, कभी मलहम है।
फूल की पंखुड़ी पर ठहरी हुई शबनम है।
ज़िंदगी दुर्योधन है, कंस है।
अपनों को डसता हुआ दंश है।
जिंदगी जिंदादिली की मिसाल है।
अंधेरे में जलती हुई मशाल है।
ऐसी ही अन्य भावपूर्ण कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए....
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लघुकथा - प्रतिबिंब - शैलजा दुबे
कहानी का अंश....
वो एक बार फिर निराश, हताश सोफे पर धम्म से बैठ गया। उसकी फाइल हाथ से छूट गई। डिग्रियाँ, सर्टिफिकेट पंखे की हवा में यहाँ-वहाँ उड़ने लगे। वह स्तब्ध, शांत, भावशून्य अपनी आशाओं, आकांक्षाओं को हवा में उड़ते देख रहा था। वह एक शिक्षित, संस्कारी, सभ्य नौजवान था, किंतु फिर भी बेरोज़गार था। उसके परिवार में माता-पिता और चार बहनें थीं। पिता सेवा निवृत्त हो चुके थे। माँ दूसरों के कपड़े सिलकर चार पैसे कमाने की कोशिश करती थी, पर अब उसकी भी आँखें कमज़ोर हो चली थीं। बहनें पढी-लिखी थी, नौकरी करना चाहती थीं, लेकिन पिता के आदर्शों और मूल्यों के आगे बेबस थीं। पिता नहीं चाहते थे कि लोग कहें कि बेटियों की कमाई खा रहे हैं। लेकिन लोगों का क्या, उनका तो काम ही है कहना। कैसी भी परिस्थिति हो उन्हें तो कहना ही है, जैसे इस काम के उन्हें पैसे मिलते हों। खैर.... उस नौजवान से परिवार के सदस्यों को बहुत उम्मीदें थीं। या यूँ कह लीजिए कि उसके कंधों पर ही परिवार का दारोमदार था। सोफे पर बैठा वह अचानक उठकर बैठ गया। तेज़ रोशनी से उसकी आँखें चौंधियाने लगीं। उसके सामने एक आकृति थी। उसने घबराकर पूछा, कौन हो तुम? तुम तो मेरी तरह ही दिख रहे हो। उस आकृति ने कहा, ‘हाँ, मैं तुम्हारा ही प्रतिबिंब हूँ। मैं तब आता हूँ, जब इंसान गहरे अंधकार, पीड़ा और अवसाद की गहराइयों में डूबने लगता है और उसे एक क्षण भी नहीं लगता अपना जीवन समाप्त करने में। वह ये विस्मृत कर देता है कि जीवन अमूल्य है, वरदान है और इस जीवन का अंत करके होगा क्या! क्या तुम उन लोगों को और परेशानी, अकेलापन नहीं दे जाओगे जो तुमसे जुड़े हैं। यह सब सुनकर उस नौजवान का चेहरा धीरे-धीरे सामान्य व स्थिर हो रहा था। उसके प्रतिबिंब ने कहा, यदि तुम्हें ईश्वर ने इस संसार में भेजा है तो तुम्हारे लिए रास्ते भी अवष्य बनाए होगें। आवश्यकता इस बात की है कि तुम उन राहों को खोजो, और एक बात सदैव याद रखना कि जो वस्तु सरलता से प्राप्त हो जाती है, उसका आनंद अधिक समय तक नहीं रहता लेकिन जो वस्तु थोड़े परिश्रम, कठिनाई से प्राप्त होती है उसका आनंद अनंत समय तक रहता है। उठो, और नए सिरे से एक बार फिर प्रयास करो क्योंकि ईश्वर की लीला को कोई नही समझ सकता। वह जो करता है अच्छे के लिए करता है। इतना कहकर वो प्रतिबिंब वहाँ से अदृश्य हो गया। अब उस नौजवान में नई आशा, विश्वास, उत्साह का संचार था। उसने अपनी बिखरी हुई डिग्रियाँ, सर्टिफिकेट समेटे और उन्हें करीने से फाइल में जमाकर चल दिया उस ओर जहाँ से रोशनी आ रही थी.... इस कहानी का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
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सिंहासन बत्तीसी - 2 - चित्रलेखा
कहानी का अंश...
एक बार राजा विक्रमादित्य की इच्छा योग साधने की हुई। अपना राजपाट अपने छोटे भाई भर्तृहरि को सौंपकर वह अंग में भभूत लगाकर जंगल में चले गए।
उसी जंगल में एक ब्राह्मण तपस्या कर रहा था। एक दिन देवताओं ने प्रसन्न होकर उस ब्राह्मण को एक फल दिया और कहा, “जो इसे खा लेगा, वह अमर हो जायगा।” ब्राह्मण ने उस फल को अपनी ब्राह्मणी को दे दिया। ब्राह्मणी ने उससे कहा, “इसे राजा को दे आओं और बदले में कुछ धन ले आओ।” ब्राह्मण ने जाकर वह फल राजा को दे दिया। राजा अपनी रानी को बुहत प्यार करता था, उसने वह फल अपनी रानी को दे दिया। रानी की दोस्ती शहर के कोतवाल से थी। रानी ने वह फल उस दे दिया। कोतवाल एक वेश्या के पास जाया करता था। वह फल वेश्या के यहाँ पहुँचा। वेश्या ने सोचा कि, “मैं अमर हो जाऊँगी तो बराबर पाप करती रहूँगी। अच्छा होगा कि यह फल राजा को दे दूँ। वह जीएगा तो लाखों का भला करेगा।” यह सोचकर उसने दरबार में जाकर वह फल राजा को दे दिया। फल को देखकर राजा आश्चर्य चकित रह गया। उसे सब भेद मालूम हुआ तो उसे बड़ा दु:ख हुआ। उसे दुनिया बेकार लगने लगी। एक दिन वह बिना किसी से कहे-सुने राजपाट छोड़कर घर से निकल गया। राजा इंद्र को यह मालूम हुआ तो उन्होंने राज्य की रखवाली के लिए एक देव भेज दिया।
उधर जब राजा विक्रमादित्य का योग पूरा हुआ तो वह लौटे। देव ने उन्हे रोका। विक्रमादित्य ने उससे पूछा तो उसने सब हाल बता दिया। विक्रमादित्य ने अपना नाम बताया, फिर भी देव ने उन्हें न जाने दिया। बोला, “तुम विक्रमाकिदत्य हो तो पहले मुझसे लड़ों।”
दोनों में लड़ाई हुई। विक्रमादित्य ने उसे पछाड़ दिया। देव बोला, “तुम मुझे छोड़ दो। मैं तुम्हारी जान बचाता हूं।”
राजा ने पूछा, “कैसे?”
देव बोला, “इस नगर में एक तेली और एक कुम्हार तुम्हें मारने की फिराक में है। तेली पाताल में राज करता है। और कुम्हार योगी बना जंगल में तपस्या करता है।
दोनों चाहते हैं कि तुमको मारकर तीनों लोकों का राज करें।
योगी ने चालाकी से तेली को अपने वश में कर लिया है। और वह अब सिरस के पेड़ पर रहता है। एक दिन योगी तुम्हें बुलायगा और छल करके ले जायगा। जब वह देवी को दंडवत करने को कहे तो तुम कह देना कि मैं राजा हूँ, दण्डवत करना नहीं जानता। तुम बताओ कि कैसे करुँ? योगी जैसे ही सिर झुकाए, तुम खांडे से उसका सिर काट देना। फिर उसे और तेली को सिरस के पेड़ से उतारकर देवी के आगे खौलते तेल के कड़ाह में डाल देना।”
राजा ने ऐसा ही किया। इससे देवी बहुत प्रसन्न हुई और उसने दो वीर उनके साथ भेज दिए। राजा अपने घर आए और राज करने लगे। दोनों वीर राजा के वश में रहे और उनकी मदद से राजा ने आगे बड़े–बडे काम किए। इसके आगे की कहानी जानिए ऑडियो की मदद से...
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शनिवार, 22 अक्टूबर 2016
पूर्व जस्टिस मार्कंडेय काटजू हाजिर हों....
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शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2016
सिंहासन बत्तीसी - 1 - रत्नमंजरी
कहानी का अंश...
अंबावती में एक राजा राज करता था। उसका बड़ा रौब-दाब था। वह बड़ा दानी था। उसी राज्य में धर्मसेन नाम का एक और बड़ा राजा हुआ। उसकी चार रानियाँ थी। एक थी ब्राहृण दूसरी क्षत्रिय, तीसरी वैश्य और चौथी शूद्र। ब्राहृणी से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम ब्राहृणीत रखा गया। क्षत्राणी से तीन बेटे हुए। एक का नाम शंख, दूसरे का नाम विक्रमादित्य और तीसरे का भर्तृहरि रखा गया। वैश्य से एक लड़का हुआ, जिसका नाम चंद्र रखा गया। शूद्राणी से धन्वन्तारि हुए।
जब वे लड़के बड़े हुए तो ब्राह्यणी का बेटा दीवान बना। बाद में वहाँ बड़े झगड़े हुए। उनसे तंग आकर वह लड़का घर से निकल पड़ा और धारापूर आया। हे राजन्! वहाँ का राजा तुम्हारा पिता था। उस लड़के ने राजा को मार डाला और राज्य अपने हाथ में करके उज्जैन पहुँचा। संयोग की बात कि उज्जैन में आते ही वह मर गया। उसके मरने पर क्षत्राणी का बेटा शंख गद्दी पर बैठा। कुछ समय बाद विक्रमादित्य ने चालाकी से शंख को मरवा डाला और स्वयं गद्दी पर बैठ गया।
एक दिन राजा विक्रमादित्य शिकार खेलने गया। बियावान जंगल। रास्ता सूझे नहीं। वह एक पेड़ चढ़ गया। ऊपर जाकर चारों ओर निगाह दौड़ाई तो पास ही उसे एक बहुत बड़ा शहर दिखाई दिया। अगले दिन राजा ने अपने नगर में लौटकर उसे बुलवाया। वह आया। राजा ने आदर से उसे बिठाया और शहर के बारे में पूछा तो उसने कहा, “वहाँ बाहुबल नाम का राजा बहुत दिनों से राज करता है। आपके पिता गंधर्वसेन उसके दीवान थे। एक बार राजा को उन पर अविश्वास हो गया और उन्हें नौकरी से अलग कर दिया। गंधर्बसेन अंबावती नगरी में आये और वहाँ के राजा हो गए। हे राजन्! आपको जग जानता है, लेकिन जब तक राजा बाहुबल आपका राजतिलक नहीं करेगा, तब तक आपका राज अचल नहीं होगा। मेरी बात मानकर राजा के पास जाओं और प्यार में भुलाकर उससे तिलक कराओं।”
विक्रमादित्य ने कहा, “अच्छा।” और वह लूतवरण को साथ लेकर वहाँ गया। बाहुबल ने बड़े आदर से उसका स्वागत किया और बड़े प्यार से उसे रखा। पाँच दिन बीत गए। लूतवरण ने विक्रमादित्य से कहा, “जब आप विदा लोगे तो बाहुबल आपसे कुछ माँगने को कहेगा। राजा के घर में एक सिंहासन हैं, जिसे महादेव ने राजा इन्द्र को दिया था। और इन्द्र ने बाहुबल को दिया। उस सिंहासन में यह गुण है कि जो उस पर बैठेगा। वह सात द्वीप नवखण्ड पृथ्वी पर राज करेगा। उसमें बहुत-से जवाहरात जड़े हैं। उसमें साँचे में ढालकर बत्तीस पुतलियाँ लगाई गई हैं। हे राजन्! तुम उसी सिंहासन को माँग लेना।”
इसके आगे की कथा ऑडियो के माध्यम से जानिए...
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सिंहासन बत्तीसी - आरंभ की कथा
कहानी का अंश...
बहुत दिनों की बात है। उज्जैन नगरी में राजा भोंज नाम का एक राजा राज करता था। वह बड़ा दानी और धर्मात्मा था। न्याय ऐसा करता कि दूध और पानी अलग-अलग हो जाए। उसके राज में शेर और बकरी एक घाट पानी पीते थे। प्रजा सब तरह से सुखी थी। नगरी के पास ही एक खेत था, जिसमें एक आदमी ने तरह–तरह की बेलें और साग-भाजियां लगा रखी थीं। एक बार की बात है कि खेत में बड़ी अच्छी फसल हुई। खूब तरकारियाँ उतरीं, लेकिन खेत के बीचों-बीच थोड़ी-सी जमीन खाली रह गई। बीज उस पर डाले थे, पर जमे नहीं। सो खेत वाले वहाँ खेत की रखवाली के लिए एक मचान बना लिया। पर उस पर वह जैसें ही चढ़ा कि लगा चिल्लाने- “कोई है? राजा भोज को पकड़ लाओं और सजा दो।”
होते-होते यह बात राजा के कानों में पहुँची। राजा ने कहा, “मुझे उस खेत पर ले चलो। मैं सारी बातें अपनी आंखों से देखना और कानों से सुनना चाहता हूं।”
लोग राजा को ले गए। खेत पर पहुँचते ही देखते क्या हैं कि वह आदमी मचान पर खड़ा है और कह रहा है- “राजा भोज को फौरन पकड़ लाओ और मेरा राज उससे ले लो। जाओ, जल्दी जाओ।”
यह सुनकर राजा को बड़ा डर लगा। वह चुपचाप महल में लौटा आया। फिक्र के मारे उसे रातभर नींद नहीं आयी। ज्यों-त्यों रात बिताई। सवेरा होते ही उसने अपने राज्य के ज्योतिषियों और पंडितों को इकट्ठा किया। उन्होंने हिसाब लगाकर बताया कि उस मचान के नीचे धन छिपा है। राजा ने उसी समय आज्ञा दी कि उस जगह को खुदवाया जाए।
खोदते-खोदते जब काफी मिट्टी निकल गई तो अचानक लोगों ने देखा कि नीचे एक सिंहासन है। उनके अचरज का ठिकाना न रहा। राजा को खबर मिली तो उसने उसे बाहर निकालने को कहा, लेकिन लाखों मजदूरों के जोर लगाने पर भी वह सिंहासन टस-से मस-न हुआ। तब एक पंडित ने बताया कि यह सिंहासन देवताओं का बनाया हुआ है। अपनी जगह से तब तक नहीं हटेगा जब तक कि इसकों कोई बलि न दी जाए। इसके आगे की कहानी जानिए ऑडियो के माध्यम से...
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बाल कहानी

तिरंगे के बारे में कुछ जानकारियाँ….
लेख का अंश…
प्रत्येक देश का राष्ट्रीय ध्वज उस देश का प्रतीक होता है। इसलिए हर नागरिक का यह कर्तव्य होता है कि वह अपने राष्ट्र के पावन प्रतीक का निष्ठापूर्वक सम्मान करे। भारत का राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे के नाम से जाना जाता है। हमारे इस ध्वज में तीन समान लंबाई-चौड़ाई वाली पट्टियाँ हैं। सबसे ऊपर त्याग की प्रतीक केसरिया, बीच में निर्मलता की प्रतीक सफेद और नीचे देश की समृद्धि और विकास की प्रतीक हरी पट्टी है। वास्तव में तिरंगे में चौथे रंग का भी प्रयोग हुआ है। यह रंग है नीला। ध्वज के मध्य में सफेद पट्टी पर अशोक चक्र इसी रंग में है। यह रंग नीले आकाश और सागर का प्रतीक है। चक्र में तीलियाँ हैं, जो 24 घंटे चलने वाली विकास की गति का प्रतीक है। आमतौर पर दुनिया भर में राष्ट्रीय ध्वज सूर्योदय के समय फहराए जाते हैं और सूर्यास्त के समय उतार लिए जाते हैं।
राष्ट्रीय ध्वज को फहराते या उतारते समय सम्मान के लिए सावधान की मुद्रा में खड़े रहना चाहिए। राष्ट्रीय ध्वज को फहराने या उसके प्रदर्शन के समय उसे किसी व्यक्ति या वस्तु विशेष के सामने झुकाना नहीं चाहिए। ऐसी ही राष्ट्रीय ध्वज से जुड़ी कुछ विेशेष नियमावली के बारे में ऑडियो की मदद से जानिए…
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लेख

बाल कविता – नींद – डॉ. श्रीप्रसाद
कविता का अंश…
नींद बड़ी अच्छी लगती है,
मीठी गोली जैसी।
नींद बड़ी अच्छी लगती है,
माँ की बोली जैसी।
नींद बड़ी अच्छी लगती है,
अपने खेलों जैसी।
नींद बड़ी अच्छी लगती है,
सुंदर मेलों जैसी।
नींद बड़ी अच्छी लगती है,
खिल खिल फूलों जैसी।
नींद बड़ी अच्छी लगती है,
प्यारे झूलों जैसी।
नींद बड़ी अच्छी लगती है,
झिलमिल किरनों जैसी।
नींद बड़ी अच्छी लगती है,
चंचल हिरनों जैसी।
नींद बड़ी अच्छी लगती है,
अपनी नानी जैसी।
नींद बड़ी अच्छी लगती है,
कथा कहानी जैसी।
नींद बड़ी अच्छी लगती है….
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए…
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गुरुवार, 20 अक्टूबर 2016
लघुकथा – सौदागर – रमेश चन्द्र शर्मा ‘आचार्य’
कहानी का अंश...
उसके पास-पड़ोस की सभी हमउम्र लड़कियाँ अपना-अपना घर बसा चुकी थीं। कई तो उसकी उम्र से चार-पाँच साल छोटी भी थी। वह विवाह के यर्थाथ से भलीभांति परिचित थी। कई बार स्त्री मुक्ति के बारे में अखबारों में पढ़ती तो उसे मन ही मन बड़ा क्रोध आता। उसकी तो बस एक ही इच्छा थी कि उसके माँ-बाबूजी सदा खुश रहें लेकिन जब भी वे उसे देखते उनके चेहरे पर विषाद की रेखाएँ उभरने लगतीं। और वे अपनी किस्मत को कोसने लगते थे। वह अच्छी तरह से जानती थी कि मध्यमवर्गीय परिवार की लड़कियाँ समाज द्वारा संचालित होती हैं और उनके माता-पिता भी समाज की रुढ़ियों से ग्रस्त होते हैं। वह हर बार सोचती कि बाबूजी से सीधे कहे कि बिना शादी के भी लोग जीते हैं और वे उसके विवाह को लेकर परेशान न हों। मगर वो कहाँ मानने वाले थे। कहीं भी, कोई भी मिलता तो बस वे उसे घर आने का न्योता दे डालते और उसे एक बार फिर सभी के सामने नुमाइश बनना पड़ता था। वह देखने में साँवली थी। नैन-नक्श भी अच्छे थे। एक कंपनी में अच्छी तनख्वाह से नौकरी भी कर रही थी।फिर क्या हुआ? क्यों विवाह में देर हो रही थी? आगे क्या हुआ? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए....
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बुधवार, 19 अक्टूबर 2016
कविता - जिसका काम उसी को साजे : विवेक भटनागर
कविता का अंश...
एक गधा था चंपक वन में,
ढेंचू जिसका नाम।
सीधा-सादा, भोला-भाला,
करता था सब काम।
एक बार वह लगा सोचने,
मैं भी गाना गाऊँ।
जंगल के सब जानवरों पर,
अपनी धाक जमाऊँ।
लेकिन गधा अकेले कैसे,
अपना राग अलापे।
यही सोचकर गधा बेचारा,
मन ही मन में झेंपे।
कालू कौए को जब उसने,
मन की बात बताई।
कालू बोला- ढेंचू भाई,
इसमें कौन बुराई।
हम दोनों मिलकर गाएँगे,
अपना नाम करेंगे।
कोयल-मैना के गाने की,
हम छुट्टी कर देंगे।
मैं काँव-काँव का राग गढ़ूँ,
तुम ढेंचू राग बनाना।
डूब मरेगा चुल्लू भर में,
तानसेन का नाना।
इतने में आ गई लोमड़ी,
फिर उनको बहकाने।
बोली- तुम तो गा सकते हो,
अच्छे-अच्छे गाने।
शेर सिंह राजा को जाकर,
अपना राग सुनाओ।
उनको खुश कर राजसभा में,
मंत्रीपद पा जाओ।
अगले दिन था राजसभा में,
उन दोनों का गाना।
ढेंचू-ढेंचू-काँव-काँव का,
बजने लगा तराना।
वहाँ उपस्थित सब लोगों ने,
कान में उंगली डाली।
गाना खत्म हो गया लेकिन
बजी न एक भी ताली।
निर्णय दिया शेरसिंह ने तब,
कर्कश है यह गान।
इससे हो सकता है प्रदूषित,
हरा-भरा उद्यान।
जाकर इस जंगल के बाहर,
तुमको गाना होगा।
वरना इस गाने पर तुमको,
टैक्स चुकाना होगा।
सुनकर शेरसिंह का निर्णय,
हो गये दोनों दंग।
जैसे भरी सभा में दोनों,
हो गये नंग-धड़ंग।
शेर सिंह की बातें सुनकर,
सपने से वे जागे।
जिसका काम उसी को साजे,
और करे तो डंडा बाजे।
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कविता - माँ का मौन - विवेक भटनागर
कविता का अंश...
लीप दिया है चूल्हा, अम्मा मिट्टी वाला।
मांज दिया है तवा, हुआ था बेहद काला।
फिर भी कहती मत जा बाहर लुक्का-छिप्पी खेल खेलने…।
बड़े सबेरे उठकर मैंने,
सारे घर के कपड़े फींचे।
नहला-धुला कर लछमिनिया को,
उलझे बाल जतन से खींचे।
भूखी गइयों की नांदों में,
खली डाल कर सानी की है।
हुई मांजकर बरतन काली,
दी हुई अंगूठी नानी की है।
लगा दिया है बटन सुई से,
संजू के नेकर में काला….।
लीप दिया है चूल्हा अम्मा मिट्टी वाला….।
जब बाहर जाती तो कहती,
बेटी तू मत बाहर खेल।
तू लड़की है, कामकाज कर,
लड़कों के संग कैसा मेल।
क्या लड़कों के साथ खेलना,
कोई पाप हुआ करता है?
लड़की का क्या कद बढ़ जाना,
अम्मा पाप हुआ करता है?
फिर तो अम्मा चारदिवारी,
लगती है मकड़ी का जाला…।
लीप दिया है चूल्हा अम्मा मिट्टी वाला…।
लेकर कलम-बुदिक्का मैंने,
पाटी में था लिखा ककहरा।
पाठ याद किए थे सारे,
था जीवन में उन्हें उतारा…।
पांच पास करते ही तुमने,
मुझे मदरसा छुटा दिया है।
घर-गृहस्थी में क्यों अम्मा,
मुझको उलझा अभी दिया है।
जो कुछ पढ़ा, अभी तक उसका,
इन कामों में पड़ा न पाला….।
लीप दिया है चूल्हा अम्मा मिट्टी वाला…।
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धरती देखती गगन की ओर - प्रदीप कुमार सिंह
धरती देखती गगन की ओर
कविता का अंश...
धरती देखती गगन की ओर, कब गिरेंगी बूँदें चारों ओर।
कब बिखरेगी हरियाली, कब मदमस्त होकर नाचेगा मोर।
होगी शांति स्थापित कब और कब खत्म होगा ये शोर।
अपने आँसू स्वयं पोछती, माता देखती गगन की ओर।
जैसे चाँद को देखता है चकोर , धरती देखती गगन की ओर।
सब रिश्ते नाते तोड़ कर मानव चला जिस मोड़ पर,
उस पथ पर अँधियारा है घोर।
कब मिटा कर अँधेरे की थाती, फिर चमकेगा सूरज चहुँ ओर।
यही पूछती बेटों से, चुपचाप देखती मरण की ओर।
धरती देखती गगन की ओर। धरती देखती गगन की ओर।
लेकर मन में आशा के अंकुर, टूटे हुए सपनों की जोड़ती है डोर।
यही सोचती मन ही मन की ना जाने कब होगी ये भोर।
मानवीय दोहन से आहत, माता देखती दमन की ओर।
धरती देखती गगन की ओर। धरती देखती गगन की ओर।
सिमटती जा रही है माँ, मिटती जा रही है माँ,
कब मानव करेगा जननी पर गौर?
अपनी ही परछाई से डरती, धरती देखती गगन की ओर।
धरती देखती गगन की ओर। धरती देखती गगन की ओर।
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दशरथ विलाप - भारतेन्दु हरिश्चंद्र
कविता का अंश...
कहाँ हौ ऐ हमारे राम प्यारे ।
किधर तुम छोड़कर मुझको सिधारे ।।
बुढ़ापे में ये दु:ख भी देखना था।
इसी के देखने को मैं बचा था ।।
छिपाई है कहाँ सुन्दर वो मूरत ।
दिखा दो साँवली-सी मुझको सूरत ।।
छिपे हो कौन-से परदे में बेटा ।
निकल आवो कि अब मरता हु बुड्ढा ।।
बुढ़ापे पर दया जो मेरे करते ।
तो बन की ओर क्यों तुम पर धरते ।।
किधर वह बन है जिसमें राम प्यारा ।
अजुध्या छोड़कर सूना सिधारा ।।
गई संग में जनक की जो लली है
इसी में मुझको और बेकली है ।।
कहेंगे क्या जनक यह हाल सुनकर ।
कहाँ सीता कहाँ वह बन भयंकर ।।
गया लछमन भी उसके साथ-ही-साथ ।
तड़पता रह गया मैं मलते ही हाथ ।।
मेरी आँखों की पुतली कहाँ है ।
बुढ़ापे की मेरी लकड़ी कहाँ है ।।
कहाँ ढूँढ़ौं मुझे कोई बता दो ।
मेरे बच्चो को बस मुझसे मिला दो ।।
लगी है आग छाती में हमारे।
बुझाओ कोई उनका हाल कह के ।।
मुझे सूना दिखाता है ज़माना ।
कहीं भी अब नहीं मेरा ठिकाना ।।
अँधेरा हो गया घर हाय मेरा ।
हुआ क्या मेरे हाथों का खिलौना ।।
मेरा धन लूटकर के कौन भागा ।
भरे घर को मेरे किसने उजाड़ा ।।
हमारा बोलता तोता कहाँ है ।
अरे वह राम-सा बेटा कहाँ है ।।
कमर टूटी, न बस अब उठ सकेंगे ।
अरे बिन राम के रो-रो मरेंगे ।।
कोई कुछ हाल तो आकर के कहता ।
है किस बन में मेरा प्यारा कलेजा ।।
हवा और धूप में कुम्हका के थककर ।
कहीं साये में बैठे होंगे रघुवर ।।
जो डरती देखकर मट्टी का चीता ।
वो वन-वन फिर रही है आज सीता ।।
कभी उतरी न सेजों से जमीं पर ।
वो फिरती है पियोदे आज दर-दर ।।
न निकली जान अब तक बेहया हूँ ।
भला मैं राम-बिन क्यों जी रहा हूँ ।।
मेरा है वज्र का लोगो कलेजा ।
कि इस दु:ख पर नहीं अब भी य फटता ।।
मेरे जीने का दिन बस हाय बीता ।
कहाँ हैं राम लछमन और सीता ।।
कहीं मुखड़ा तो दिखला जायँ प्यारे ।
न रह जाये हविस जी में हमारे ।।
कहाँ हो राम मेरे राम-ए-राम ।
मेरे प्यारे मेरे बच्चे मेरे श्याम ।।
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बाल कविताएँ - महादेवी वर्मा
कविता का अंश...
मेह बरसने वाला है,
मेरी खिड़की में आ जा तितली।
बाहर जब पर होंगे गीले,
धुल जाएँगे रंग सजीले,
झड़ जाएगा फूल, न तुझको
बचा सकेगा छोटी तितली,
खिड़की में तू आ जा तितली!
नन्हे तुझे पकड़ पाएगा,
डिब्बी में रख ले जाएगा,
फिर किताब में चिपकाएगा,
मर जाएगी तब तू तितली,
खिड़की में तू छिप जा तितली।
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कविताएँ - रामधारी सिंह ‘दिनकर’
कविता का अंश...
राजा वसन्त वर्षा ऋतुओं की रानी,
लेकिन दोनों की कितनी भिन्न कहानी।
राजा के मुख में हँसी कण्ठ में माला,
रानी का अन्तर द्रवित दृगों में पानी।
डोलती सुरभि राजा घर कोने कोने,
परियाँ सेवा में खड़ी सजा कर दोने।
खोले अंचल रानी व्याकुल सी आई,
उमड़ी जाने क्या व्यथा लगी वह रोने।
लेखनी लिखे मन में जो निहित व्यथा है,
रानी की निशि दिन गीली रही कथा है।
त्रेता के राजा क्षमा करें यदि बोलूँ,
राजा रानी की युग से यही प्रथा है।
नृप हुये राम तुमने विपदायें झेलीं,
थी कीर्ति उन्हें प्रिय तुम वन गयीं अकेली।
वैदेहि तुम्हें माना कलंकिनी प्रिय ने,
रानी करुणा की तुम भी विषम पहेली।
रो रो राजा की कीर्तिलता पनपाओ,
रानी आयसु है लिये गर्भ वन जाओ।
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मंगलवार, 18 अक्टूबर 2016
बाल कविताएँ - 3 - हरिवंशराय बच्चन
रेल...
कविता का अंश...
आओ हम सब खेलें खेल
एक दूसरे के पीछे हो
लम्बी एक बनायें रेल ।
जो है सबसे मोटा-काला
वही बनेगा इंजनवाला;
सबसे आगे जायेगा,
सबको वही चलायेगा ।
एक दूसरे के पीछे हो
डिब्बे बाक़ी बन जायें,
चलें एक सीधी लाइन में
झुकें नहीं दायें, बायें ।
सबसे छोटा सबसे पीछे
गार्ड बनाया जायेगा,
हरी चलाने को, रुकने को
झण्डी लाल दिखायेगा ।
जब इंजनवाला सीटी दे
सब को पाँव बढ़ाना है,
सबको अपने मुँह से 'छुक-छुक
छुक-छुक' करते जाना है ।
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बाल कविता

बाल कविताएँ - 2 - हरिवंशराय बच्चन
प्यासा कौआ...
कविता का अंश...
आसमान में परेशान-सा,
कौआ उड़ता जाता था ।
बड़े जोर की प्यास लगी थी,
पानी कहीं न पाता था ।
उड़ते उड़ते उसने देखा,
एक जगह पर एक घड़ा,
सोचा अन्दर पानी होगा,
जल्दी-जल्दी वह उतरा ।
उसने चोंच घड़े में डाली,
पी न सका लेकिन पानी,
पानी था अन्दर, पर थोड़ा,
हार न कौए ने मानी ।
उठा चोंच सें कंकड़ लाया,
डाल दिया उसको अन्दर,
बडे गौर से उसने देखा,
पानी उठता कुछ ऊपर ।
फिर तो कंकड़ पर कंकड़ ला,
डाले उसने अन्दर को।
धीरे-धीरे उठता-उठता,
पानी आया ऊपर को ।
बैठ घड़े के मुँह पर अपनी,
प्यास बुझाई कौए ने ।
मुश्किल में मत हिम्मत हारो,
बात सिखाई कौए ने ।
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बाल कविताएँ - 1 - हरिवंशराय बच्चन
चिड़िया और चुरूंगुन...
कविता का अंश...
छोड़ घोंसला बाहर आया,
देखी डालें, देखे पात,
और सुनी जो पत्ते हिलमिल,
करते हैं आपस में बात;-
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
'नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया'
डाली से डाली पर पहुँचा,
देखी कलियाँ, देखे फूल,
ऊपर उठकर फुनगी जानी,
नीचे झूककर जाना मूल;-
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
'नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया'
कच्चे-पक्के फल पहचाने,
खए और गिराए काट,
खने-गाने के सब साथी,
देख रहे हैं मेरी बाट;-
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
'नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया'
उस तरू से इस तरू पर आता,
जाता हूँ धरती की ओर,
दाना कोई कहीं पड़ा हो
चुन लाता हूँ ठोक-ठठोर;
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
'नहीं, चुरूगुन, तू भरमाया'
मैं नीले अज्ञात गगन की,
सुनता हूँ अनिवार पुकार।
कोइ अंदर से कहता है,
उड़ जा, उड़ता जा पर मार;-
माँ, क्या मुझको उड़ना आया?
'आज सुफल हैं तेरे डैने,
आज सुफल है तेरी काया'
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बाल कविता - पानी और धूप - सुभद्राकुमारी चौहान
कविता का अंश...
पानी और धूप
अभी अभी थी धूप, बरसने
लगा कहाँ से यह पानी।
किसने फोड़ घड़े बादल के,
की है इतनी शैतानी।
सूरज ने क्यों बंद कर लिया,
अपने घर का दरवाजा़।
उसकी माँ ने भी क्या उसको,
बुला लिया कहकर आजा।
ज़ोर-ज़ोर से गरज रहे हैं,
बादल हैं किसके काका।
किसको डाँट रहे हैं, किसने
कहना नहीं सुना माँ का।
बिजली के आँगन में अम्माँ,
चलती है कितनी तलवार।
कैसी चमक रही है फिर भी,
क्यों खाली जाते हैं वार।
क्या अब तक तलवार चलाना,
माँ वे सीख नहीं पाए।
इसीलिए क्या आज सीखने,
आसमान पर हैं आए।
एक बार भी माँ यदि मुझको,
बिजली के घर जाने दो,
उसके बच्चों को तलवार,
चलाना सिखला आने दो।
खुश होकर तब बिजली देगी,
मुझे चमकती सी तलवार।
तब माँ कर न कोई सकेगा,
अपने ऊपर अत्याचार।
पुलिसमैन अपने काका को,
फिर न पकड़ने आएँगे।
देखेंगे तलवार दूर से ही,
वे सब डर जाएँगे।
अगर चाहती हो माँ काका,
जाएँ अब न जेलखाना।
तो फिर बिजली के घर मुझको,
तुम जल्दी से पहुँचाना।
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कविताएँ - सुभद्राकुमारी चौहान
सुभद्रा कुमारी चौहान (१६ अगस्त १९०४-१५ फरवरी१९४८) का जन्म नागपंचमी के दिन इलाहाबाद के निकट निहालपुर नामक गांव में रामनाथसिंह के जमींदार परिवार में हुआ था। वह हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री, लेखिका और स्वतंत्रता सेनानी थीं। उनके दो कविता संग्रह तथा तीन कथा संग्रह प्रकाशित हुए पर उनकी प्रसिद्धि झाँसी की रानी कविता के कारण है। उनके काव्यसंग्रह हैं: मुकुल और त्रिधारा । यहाँ हम उनकी पहली और अंतिम कविताओं का ऑडियो प्रस्तुत कर रहे हैं।
कविता - नीम... कविता का अंश...
सब दुखहरन सुखकर परम हे नीम! जब देखूँ तुझे।
तुहि जानकर अति लाभकारी हर्ष होता है मुझे।
ये लहलही पत्तियाँ हरी, शीतल पवन बरसा रहीं।
निज मंद मीठी वायु से सब जीव को हरषा रहीं।
हे नीम! यद्यपि तू कड़ू, नहिं रंच-मात्र मिठास है।
उपकार करना दूसरों का, गुण तिहारे पास है।
नहिं रंच-मात्र सुवास है, नहिं फूलती सुंदर कली।
कड़ुवे फलों अरु फूल में तू सर्वदा फूली-फली।
तू सर्वगुणसंपन्न है, तू जीव-हितकारी बड़ी।
तू दु:खहारी है प्रिये! तू लाभकारी है बड़ी।
है कौन ऐसा घर यहाँ जहाँ काम तेरा नहिं पड़ा।
ये जन तिहारे ही शरण हे नीम! आते हैं सदा।
तेरी कृपा से सुख सहित आनंद पाते सर्वदा।
तू रोगमुक्त अनेक जन को सर्वदा करती रहै।
इस भांति से उपकार तू हर एक का करती रहै।
प्रार्थना हरि से करूँ, हिय में सदा यह आस हो।
जब तक रहें नभ, चंद्र-तारे सूर्य का परकास हो।
तब तक हमारे देश में तुम सर्वदा फूला करो।
निज वायु शीतल से पथिक-जन का हृदय शीतल करो।
(यह सुभद्रा जी की पहली कविता है जो 1913 में
"मर्यादा" नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। तब
वे मात्र 9 साल की थीं। )
सुभद्राकुमारी चौहान की पहली और अंतिम कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
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बाल कहानी – सोने का कंगन
कहानी का अंश… एक जंगल में एक बूढ़ा शेर रहता था। बुढ़ापे के कारण वह शिकार नहीं कर सकता था। उसके मुँह में दाँत और पैर के नाखून भी कमजोर हो गए थे। अपने शिकार के लिए उसे घंटो इंतजार करना होता था। कभी तो उसे कई दिनों तक खाना तक नसीब नहीं होता था। बूढ़े शेर को छोटे-मोटे पक्षी खाकर ही काम चलाना पड़ता था। एक बार उसे जंगल में किसी राहगीर का एक सोने का कंगन मिल गया। शेर ने उसे उठा लिया। अब बूढ़ा शेर उस कंगन को लेकर किसी को अपने जाल में फँसाने की तरकीब सोचने लगा लेकिन जो भी आदमी उसके पास कंगन देखता कि बजाय उसके पास आने के अपनी मौत के डर से भाग खड़ा होता। कई दिनों तक शेर को इस कंगन के सहारे कोई शिकार नहीं मिला। आखिर क्या हुआ होगा? क्या शेर को शिकार मिला या नहीं? यह जानने के लिए ऑडियो की सहायता लीजिए…
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बाल कहानी

शनिवार, 15 अक्टूबर 2016
कविता - हौसले - भारती परिमल
कविता का अंश...
हौसला
हौसले बन जाते हैं,
खुले आसमान में परवाज़।
और ऊपर बहुत ऊपर तक,
पहुँचने को हो जाते हैं उतावले।
हौसले बन जाते हैं,
बहती नदी की चंचल धारा।
और दूर बहुत दूर समंदर की ओर,
बढ़ते चले जाते हैं।
हौसले बन जाते हैँ,
हिम पर्वत से अटल।
और ऊँचे बहुत ऊँचे तक,
अंकित कर देते हैं पद चिन्ह।
हौसले बन जाते हैँ,
एक उपजाऊ ज़मीन।
और गहरे बहुत गहरे तक,
फैल जाती है विश्वास की जड़,
सतह पर फूटता है एक अंकुर।
हौसले बन जाते हैं,
हमारे व्यक्तित्व की अनोखी पहचान।
हौसले बना देते हैं,
हमें आम से एक खास इंसान।
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कविता - एक दास्तां - डा. छवि निगम
कविता का अंश...
दिन के पास थीं दास्तानें कितनी,
संजोए थी रात भी ख्वाब हसीं।
कहने खूबसूरत किस्से थे,
सुननी रुबाइयां कुछ भीनी।
ठिठक गया चांद,
रुपहली खिड़की पर कुछ पल।
चांदनी छन्न से बिखर गई,
नदियां हंस पड़ीं खिलखिल कर।
जरा अकड़, तन गया पर्वत कोई।
घाटियों ने गहरी सांसें लीं,
दरख्तों ने धरी होंठों पे उंगलियां।
शांत हुए भंवरे,
चंचल तितलियों की धमाचौकड़ी भी,
थम गई बेसाख्ता।
झुक सा गया कुछ आसमां,
धरा चिहुंकी, थरथरा गई।
कुछ दरका, चटखा भी कहीं कुछ।
थोड़ा सा लहका, तो बरस भी गया।
ज्वार उफना...उतर गया।
कुछ अधजला
या अधबुझा सा,
सुलगता ही रह गया।
चांद के दिल में बस इक कसक,
बाकी रह गई।
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चीनी माल से पाक को तमाचा
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आज का सच

कहानी - पड़ोसिन - शालू दुग्गल
कहानी का अंश....
सीमा को हमारे पड़ोस में आए अभी 1 महीना ही हुआ है, पर वह हर किसी से कुछ ज्यादा ही खुलने की कोशिश करती है खासकर मुझ से, क्योंकि हम आमनेसामने के पड़ोसी थे. इसीलिए वह बिना बताए बिना बुलाए किसी भी वक्त मेरे घर आ धमकती, कभी कुछ देने तो कभी कुछ लेने. हम पिछले 5 सालों से यहां रह रहे हैं. इस कालोनी में सब अपने में मस्त रहते हैं. किसी को किसी से कोई लेनादेना नहीं. बस कभीकभार महिलाओं की किट्टी पार्टी में या फिर कालोनी के पार्क में शाम को मिल जाते हैं. इतने सालों में मैं शायद ही कभी किसी के घर गई हूं. इसीलिए सीमा की यह आदत आजकल चर्चा का विषय बनी हुई थी.
रविवार को सारा दिन आराम करने में निकल गया. शाम को बच्चों ने पार्क चलने को कहा तो पति भी तैयार हो गए. बच्चे और मेरे पति फुटबौल खेलने में व्यस्त हो गए, तो मैं कालोनी की महिलाओं के साथ बातों में लग गई.
‘‘और सुधाजी, आप की पड़ोसिन के क्या हालचाल हैं... यार, सच में कमाल की औरत है. आज सुबहसुबह आ कर इडलीसांभर दे गई... सारी नींद खराब कर दी हम सब की,’’ कह हमारे घर से 4 मकान छोड़ कर रहने वाली एकता ने बुरा सा मुंह बनाया.
‘‘अरे अच्छा ही हुआ जो इडली दे गई. मेरी नाश्ता बनाने की छुट्टी हो गई,’’ पड़ोसिन सविता हंसते हुए बोली.
‘‘अरे बरतन देखे थे ...आज स्टील के बरतन कौन इस्तेमाल करता है? हमारी तो सारी क्रौकरी विदेशी है... बच्चे तो स्टील के बरतन देखते ही चिढ़ गए,’’ एकता बोली.
आजकल कालोनी में जब भी महिलाओं का ग्रुप कहीं एकसाथ नजर आए तो समझ लीजिए सीमा ही चर्चा का विषय होगी. कमाल है यह सीमा भी.
तभी सामने से सीमा आती दिखी तो एकता दबी जबान में बोली, ‘‘देखो तो जरा इसे... इस का दुपट्टा कहीं से भी सूट से मेल नहीं खा रहा... कैसी गंवार लग रही है यह.’’
‘‘क्या हाल हैं भाभीजी... आप सब को इडली कैसी लगी?’’ सीमा ने बहुत उत्साह से पूछा.
‘‘अरे, कमाल का जादू है तुम्हारे हाथों में सीमा... बहुत अच्छा खाना बना लेती हो तुम...’’ सब ने एक ही सुर में सीमा की तारीफ की. फिर थोड़ी देर बाद उस के जाने पर सभी उस का मजाक उड़ाते हुए हंसने लगीं.
कुछ दिन बाद कालोनी के शादी के हौल में एकता ने अपने बेटे का जन्मदिन मनाया. हर कोई बनठन कर पहुंचा. सीमा इतनी चटक रंग की साड़ी और इतने भारी गहने पहन कर आई गोया किसी शादी में आई हो. फिर एक बार वह सब के बीच मजाक का पात्र बन गई.आए दिन कालोनी में उस का या उस के पति का यों ही मजाक उड़ता. पूरी कालोनी की कारें साफ करने के लिए हम सब ने मिल कर 2 लोगों को रखा हुआ था. पर सीमा का पति दिन में 2-3 बार खुद अपनी कार साफ करता था.
आए दिन कालोनी में सीमा का मजाक उड़ता और मैं भी उस में शामिल होती. हालांकि सीमा की काफी बातें मुझे अच्छी लगतीं पर कहीं सब इस की तरह मेरा भी मजाक न उड़ाएं, इसलिए मैं उस से दूरी बनाए रखती. कुछ दिन बाद मेरी बूआसास को दिल का दौरा पड़ा. उन्हें अस्पताल में दाखिल कराया गया. देवर का फोन आते ही मैं और मेरे पति अस्पताल भागे. वहां हमें काफी समय लग गया. मैं ने घड़ी देखी तो खयाल आया कि बच्चे स्कूल से आते ही होंगे. जल्दबाजी में मैं चाबी चौकीदार को देना भूल गई. मुझे उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं. मैं ने एकता को फोन किया तो वह बोली कि यार सौरी मुझे शौपिंग के लिए जाना है. अभी घर पर ताला ही लगा रही थी और उस ने फोन काट दिया.
एकता के अलावा मेरे पास और किसी का फोन नंबर नहीं था. मुझे खुद पर गुस्सा आ रहा था कि इतने सालों में मैं ने किसी का फोन नंबर लेने की भी कोशिश नहीं की. मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं. फिर मैं ने इन से कार की चाबी ली और घर चल दी. रास्ते में जाम ने दुखी कर दिया. घर पहुंचतेपहुंचते काफी देर हो गई. सोच रही थी कि बच्चे 1 घंटे से दरवाजे पर खड़े होंगे. खुद पर बहुत गुस्सा आ रहा था.
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शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2016
कविता - अम्मा की चिट्ठी - अरुण आदित्य
कविता का अंश...
गाँवों की पगडण्डी जैसे,
टेढ़े अक्षर डोल रहे हैं ।
अम्मा की ही है यह चिट्ठी,
एक-एक कर बोल रहे हैं ।
अड़तालीस घंटे से छोटी,
अब तो कोई रात नहीं है।
पर आगे लिखती है अम्मा,
घबराने की बात नहीं है ।
दीया बत्ती माचिस सब है,
बस थोड़ा सा तेल नहीं है।
मुखिया जी कहते इस जुग में,
दिया जलाना खेल नहीं है।
गाँव देश का हाल लिखूँ क्या,
ऐसा तो कुछ खास नहीं है।
चारों ओर खिली है सरसों,
पर जाने क्यों वास नहीं है।
केवल धड़कन ही गायब है ,
बाकी सारा गाँव वही है।
नोन तेल सब कुछ महंगा है,
इन्सानों का भाव वही है ।
रिश्तों की गर्माहट गायब,
जलता हुआ अलाव वही है।
शीतलता ही नहीं मिलेगी,
आम नीम की छाँव वही है।
टूट गया पुल गंगा जी का,
लेकिन अभी बहाव वही है।
मल्लाहा तो बदल गया पर,
छेदों वाली नाव वही है।
बेटा सुना शहर में तेरे,
मार-काट का दौर चल रहा।
कैसे लिखूँ यहाँ आ जाओ,
उसी आग में गाँव जल रहा।
कर्फ्यू यहाँ नहीं लगता,
पर कर्फ्यू जैसा लग जाता है।
रामू का वह जिगरी जुम्मन,
मिलने से अब कतराता है।
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कविताएँ - अरविंद अवस्थी
कविता का अंश...
विवाह के मंडप में,
दिये के साथ,
स्थापित कलश,
क्या-क्या नहीं सहा,
उसने वहाँ पहुँचने के लिए।
बार-बार रौंदा गया,
कुम्हार की थाप और,
धूप सहकर भी,
उसे पकने के लिए,
जाना पड़ा है अग्नि-भट्ठी में।
उतरना पड़ा है खरा,
हर कसौटी पर,
रंग जाना पड़ा है,
चित्रकार की तूलिका से।
तभी तो मिट्टी का कलश,
बन गया है मूल्यवान,
तपकर, सजकर,
सोने के कलश-सा ।
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संपर्क - e mail : awasthiarvind@gmail.com
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कहानी - सजनवा - 2 - डॉ. शरद ठाकर
डॉक्टर शरद ठाकर एक गायनेकोलॉजिस्ट होने के साथ-साथ कलम के धनी भी हैं। गुजरात के पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कलम चलती है और क्या खूब चलती है। उन्हें एक साहित्यकार एवं कहानीकार के रूप में घर-घर में पहचाना जाता है। विशेषकर महिलाओं के तो वे प्रिय लेखक हैंं। उनकी इस कहानी को पढ़ते हुए हमें बेहद खुशी हो रही है। आप भी इनकी लेखनी से परिचित होकर प्रसन्नता अनुभव करेंगे। ऐसा मेरा विश्वास है। कहानी का कुछ अंश...
पूरे गाँव में हाहाकार मच गया, नगरसेठ तलकचंद की बेटी ऋता उनके नौकर खुशाल के साथ भाग गई! वैष्णव वणिक कुल में जन्मी कन्या एक आदिवासी ठाकुर के गले का हार बन गई! खबर फैलते देर नहीं लगी। वैसे भी कौन सा बड़ा गाँव था? सभी के मुँह पर एक ही बात थी- ऋता के बारे में तो ऐसा नहीं सोचा था!
लेकिन गाँव की हाईस्कूल के युवा आचार्य मूरत जोशीपुरा को यह खबर सुनकर जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ। उनके मुख से पहला प्रतिभाव ये था - 'ऋता है ही सनकी। उसे जो अच्छा लगता है, वो वही करती है। आचार्य के इस वाक्य के पीछे ऋता से जुड़ा भूतकाल का अनुभव झाँक रहा था।
बारहवीं की वार्षिक परीक्षा थी। आचार्य मूरत जोशीपुरा स्वयं परीक्षाकक्ष में राउन्ड लेने के लिए आए। जैसे ही वे कक्ष में दाखिल हुए कि उन्हें देखकर आखरी बैंच पर बैठी साँवली सलोनी सत्रह वर्षीय ऋता खड़ी हो गई और चलते हुए ब्लैकबोर्ड की दीवार की तरफ आगे बढ़ी। वहाँ पर परीक्षार्थियों की पुस्तकें और गाईड रखी थी। ऋता ने उस ढेर में से एक गाईड उठा ली और बिना किसी संकोच या शर्म के गाईड खोलकर प्रश्नों के उत्तर लिखने लगी। सुपरवाइजर स्तब्ध! अन्य परीक्षार्थी भी सकपका गए। एक क्षण के लिए तो आचार्य भी विस्मित हो गए। 'ऋता...! व्हॉट इज़ दिस ? आचार्य की आवाज परीक्षा खंड को कंपकंपा गई। 'देख नहीं रहे हैं, सर? गाईड में से नकल कर रही हूँ। 'इसकी सजा क्या है, ये तुम्हें पता है? तीन साल के लिए स्कूल से तुम्हें निकाल दिया जाएगा।
'केवल मुझे ही? ये सभी कब से चीटिंग कर रहे हैं और छोटी-छोटी कतरनों में से देखकर लिख रहे हैं उन्हें कोई सजा नहीं मिलेगी? ऋता की आँख से चिंगारियाँ निकल रही थी। जोशीपुरा साहब सारा मामला समझ गए। अन्य विद्यार्थी नकल कर रहे थे, ये बात इस सत्यवादी लडक़ी से बर्दाश्त नहीं हुई। लेकिन किसी का नाम लेकर शिकायत करने के बदले ऋता ने ये मौलिक उपाय अपनाया था। आचार्य की एक फटकार और फटाफट सारी कतरनों का ढेर लग गया।
ऋता ने भी पुस्तक वहीं रख दी। साहब ने उसकी कॉपी में देखा तो उसने पुस्तक में से एक भी वाक्य नहीं चुराया था! इस घटना के दो वर्ष बाद आज ऋता ने आज फिर पूरे गाँव को हिलाकर रख दिया था।
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कहानी – सदाको… एक सुनहरी चिड़िया – एलीनेर कोयर
कहानी का अंश…
सदाको हिरोशिमा में रहती थी। यह जापान का वही शहर है, जहाँ अमेरिका ने एटमबम गिराया था। एटमबम की तबाही से बहुत सारे लोग मारे गए थे और बचे हुए लोग एक विचित्र बीमारी के शिकार हो गए थे। सदाको भी उनमें से एक थी। सदाको अस्पताल में भर्ती थी। उसकी दोस्त ने उसे कागज के एक हजार सुनहरे पक्षी बनाने की सलाह दी थी। कागज के पक्षी एक शुभ प्रतीक थे। सभी लोग सदाको के पक्षियों के लिए कागज जमा करने लगे। सदाको रोज दो-चार चिड़िया बनाती।
अगले कुछ दिनों में कई बार ऐसा लगा जैसे सदाको एकदम भली-चंगी हो गई है। परंतु डॉक्टर्स ने कहा कि सदाको को अस्पताल से घर ले जाना उचित नहीं है। अब तक सदाको को पता चल चुका था कि उसे खून का कैंसर है। पर उसने अपने स्वस्थ होने की उम्मीद नहीं छोड़ी थी। उसे पूरी आशा थी कि एक दिन वह ठीक हो जाएगी। सदाको हमेशा अपने आपको व्यस्त रखती। अपने मित्रों को पत्र लिखती, मिलने आनेवाले लोगों से पहेलियाँ बूझती, खेल-खेलती और गाने गाती। शाम के वक्त वह चिड़िया बनाती थी। वह अभी तक तीन सौ से भी ज्यादा चिड़िया बना चुकी थी। अब कागज मोड़ने में उसका हाथ साफ हो चुका था। उसकी उँगलियाँ कागज के मोड़ों को अच्छी तरह पहचानने लगी थी परंतु धीरे-धीरे उसकी बीमारी बढ़ती जा रही थी। सदाको को शरीर में दर्द का अहसास होने लगा था। कभी-कभी उसके सिर में इतना तेज दर्द होता कि वह न तो पढ़ पाती थी और न ही लिख पाती थी। कभी उसे ऐसा लगता मानो उसकी हड्डियों में आग लग गई है और वह गलने लगी हैं। उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा जाता। वह घंटो सुनहरे पक्षी को अपनी गोद में लेकर बैठी रहती। एक दिन नर्स उसे पहियो वाली कुर्सी पर बैठाकर बाहर बरामदे में ले आई। वहाँ कुछ धूप थी। यहाँ सदाको की मुलाकात केनजी से हुई। आगे क्या हुआ? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए….
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गुरुवार, 13 अक्टूबर 2016
भारत के राष्ट्रीय प्रतीक...





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सावन के झूले – डॉ. रेणु शर्मा
लेख का अंश…
झूले का सीधा रिश्ता ब्रज से जुड़ जाता है और ऊँचे घने वृक्षों पर मूंज की मजबूत रस्सी पर लम्बी-लम्बी पेंगे भरती ग्वाल बालाओं की तसवीर उभर आती है। कन्हैया के बचपन की क्रीड़ा झूले से शुरू होकर यौवनावस्था के राधा के संग झूले पर प्रेम पगी कुछ चिर स्थायी स्मृतियों तक की गाथाएँ झूले के साथ ही अनुभूत होने लगती है। सावन मास के शुरू होते ही माता-पिता की लाडो रही बिटिया पीहर आकर अपने भाइयों से झूला डालने की जिद करने लगी है। जहाँ भी नजर घुमाओ, छोटी डाल से लेकर आम के बागों तक झूले ही झूले दिखने लगते हैं। ऐसी रस्मोरिवाज से लबरेज ब्रज के छोटे गाँव में पली मैं अपने बड़े आँगन में जाने कबसे जमे नीम के पेड़ पर झूला डलवा लेती थी। सावन की रिमझिम फुहारों के बीच ऊँची पेंगे भरने पर ऐसा लगता था जैसे बादलों के बीच हम किसी कोमल रेशम की डोरी के सहारे एक जगह से दूसरी जगह पर फुदक रहे हैं। हमारे नीम के पेड़ की डालियाँ सावन आते ही बाँट ली जाती थी। कभी-कभी तो ये सोचकर खुशी होती कि हमें सावन का गीत गाना आत है। और माँ से छुपाकर सावन की मल्हारें किताब खरीदकर लाते और स्वरचित धुन में उसे काफी रात तक गाते। जब सखियों से संबंध अच्छे चल रहे हों, तो एक ही डाली पर दो झूले एक साथ डालकर एक-दूसरे की पटली में पैर फँसाकर झूलों को जोड़ लिया जाता और शुरू होता झूलने का लंबा सिलसिला। इस खेल के लिए हम दिन बाँट लिया करते थे। सावन के झूलों की ऐसी ही बचपन से जुड़ी पूरी दास्तान ऑडियो के माध्यम से सुनिए….
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