शुक्रवार, 27 मई 2016

कविताएँ - राजेंद्र प्रताप सिंह

कविता का अंश... जीवन दात्री धरती,रक्त रंजित हो रही, फूलों की बगिया, पुष्प रहित हो रही। औरों की प्यास बुझाते हुए, स्वयं प्यासी हो गयी, मानव की प्यास बुझने का नाम नहीं लेती। अतृप्त मानव खून का प्यासा हो रहा, पानी से नहीं, अब तो खून से भी नहीं बुझती। कौरव पाण्डवों से नहीं, कौरवों से ही लड़ रहे पाण्डव अज्ञातवास में है, कौरव युद्ध जारी है। धृतराष्ट् को दिखता नहीं, युधिष्ठिर जुऐ में व्यस्त है। कृष्ण असहाय से मूक दर्शक बन दूर चले गए। द्वारिका भी है गृह युद्ध में झुलसे हुए, राम ,हनुमान भी अयोध्या में हैं उलझे हुए, शिव भी विषपान कर, हिम पर्वत पर चले गए। सीता हरण भी हो गया, रावण को खोजते ही रहे, अब कौन बचाए ?इस धरती को आतंक से सच तो यह है कि सभी व्यस्त हैं अपने मंगल में, हे मानव ! अब तो जागो खुद के दंगल से । बाहर निकलो ,अपने अंतर्मन के दवंद्व से। ऐसी ही अन्य कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

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