सोमवार, 4 जुलाई 2016
खंडकाव्य- माँ मन्थरा - भाग - 2 - महत्व - प्रभाकर पाण्डेय
कविता का अंश...
होगा वही जो वो चाहेंगे,
जगतपालक, प्रभु श्रीराम,
जो होना है, हो जाएगा,
वे ही करते हैं सारे काम ।१३२
किसी तरह मंथरा हुई सफल,
माँ हो गई भरत वत्सल,
पर प्रजा के देखने में था,
दासी का यह जघन्य छल ।१३३।
अपना हित तो सब करते हैं,
मनुष्य वही जो परहित मरे,
अपने भूखा रहकर भी,
दूसरों का पेट भरे ।१३४।
हम सोंचे अपना हित,
तो फर्क क्या रह जाएगा,
मानव और हैवान में,
सत्य, अहिंसा कौन जगाएगा ।१३५।
अस्तु हैं हम सब मानव,
सोंचे विश्व का कल्याण,
इसी में है हम सबकी खुशी,
कोई न फेंके अहित का वाण ।१३६।
आगे का काव्य ऑडियो की मदद से सुनिए...
सम्पर्क - prabhakargopalpuriya@gmail.com
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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सादर आभार भारती जी। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आप बहुत जल्द इस खंड-काव्य के प्रथम भाग को भी अपनी आवाज देंगी। सादर। बहुत ही अच्छा लगा सुनकर।
जवाब देंहटाएंभवदीय,
प्रभाकर पांडेय गोपालपुरिया