रविवार, 24 जुलाई 2016
कविता - याज्ञसेनी - 1 - राजेश्वर वशिष्ठ
कविता का अंश... याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं !
स्त्रियों के जन्म कब चाहे समय ने,
सभ्यता ने और पुरुषों ने
बस देह ही चाही !
पुत्र की ही चाह तब से आज तक है
युद्ध का नायक बनेगा वह !
मृत्यु पर देगा वही
अग्नि, तर्पण, दान, सज्जा भी
श्राद्ध होंगे पूर्वजों के संकल्प से उसके
राज्य का स्वामी बनेगा वह
कुछ नहीं बदला !
उद्विग्न थे राजा द्रुपद
संग्राम में हारे हुए थे
द्रौणाचार्य ने उनको हराकर
राज्य आधा ले लिया था
वह जानते थे
द्रौण भूलेगा नहीं उस वेदना को
गुरु-पुत्र था वह, मित्र भी था
बालपन में साथ थे वे,
दीक्षित हुए थे एक ही दिन !
एक राजा निर्धनों को
क्यों करे स्वीकार, यदि उपयोग ही न हो
जनहित का दिखावा घोषणा भर ही तो रहा है
हर समय में !
पुत्र की इच्छा प्रबल थी
यज्ञ में बैठे हुए थे द्रुपद
स्वस्तिवन्दन हो रहा था देवताओं का
आचार्य थे यज और उपयज
धूम्र से महका हुआ था यज्ञ-परिसर
मानो नृत्य अग्नि कर रहा था !
इस पूरी कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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