मंगलवार, 19 जुलाई 2016
कहानी - मेरे जाने का जश्न - विभा खरे
कहानी का अंश… शाम को दफ्तर से घर लौटती तो आए दिन सेंटर टेबल पर पड़े दो-तीन लाल-गुलाबी-चमकीले शादी के कार्ड मुझे मुँह चिढ़ाते नजर आते। रोज-रोज की इस बेइज्जती से मैं टूट चुकी थी। अपने ही घर में हर रोज, बिना वजह, परायापन महसूस कराया जा रहा था और अब तो हालात यहाँ तक पहुँच चुके थे कि घर के किसी कोने में कोई दो लोग धीमी आवाज में बात भी करें, तो मुझे लगता कि मेरा ही जिक्र और मेरी ही फिक्र हो रही है। यह अवसाद अब पागलपन का रूप लेता जा रहा था। स्वभाव से स्वच्छंद, बेफिक्र, स्वाभिमानी, स्वावलंबी मैं… धीरे-धीरे अवसादग्रस्त होती चली जा रही थी। ऐसे में एक दिन भैया ने सुबह-सुबह आदेश दिया कि आज दफ़्तर से छुट्टी ले लो। मैं कुछ वजह पूछती कि उससे पहले ही भाभी ने शरारती अंदाज में कमर पर हाथ रखते हुए कहा, दीदी, तैयार हो जाओ। आपको देखनेवाले आ रहे हैं। घर में त्योहार-सा माहौल हो गया। भाभी मेरे लिए खूबसूरत गहने और साडियाँ निकालकर बिस्तर पर जमा रही थी। घर के सभी लोग खुश थे.. बहुत खुश…। आगे क्या हुआ, यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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