गुरुवार, 28 जुलाई 2016

ए माँ टेरेसा... - जावेद अख़्तर

कविता का अंश... ए माँ टेरेसा मुझको तेरी अज़मत से इनकार नहीं है जाने कितने सूखे लब और वीराँ आँखें जाने कितने थके बदन और ज़ख़्मी रूहें कूड़ाघर में रोटी का इक टुकड़ा ढूँढते नंगे बच्चे फ़ुटपाथों पर गलते सड़ते बुड्ढे कोढ़ी जाने कितने बेघर बेदर बेकस इनसाँ जाने कितने टूटे कुचले बेबस इनसाँ तेरी छाँवों में जीने की हिम्मत पाते हैं इनको अपने होने की जो सज़ा मिली है उस होने की सज़ा से थोड़ी सी ही सही मोहलत पाते हैं तेरा लम्स मसीहा है और तेरा करम है एक समंदर जिसका कोई पार नहीं है ए माँ टेरेसा मुझको तेरी अज़मत से इनकार नहीं है मैं ठहरा ख़ुदगर्ज़ बस इक अपनी ही ख़ातिर जीनेवाला मैं तुझसे किस मुँह से पूछूँ तूने कभी ये क्यूँ नहीं पूछा किसने इन बदहालों को बदहाल किया है तुने कभी ये क्यूँ नहीं सोचा कौन-सी ताक़त इंसानों से जीने का हक़ छीन के उनको फ़ुटपाथों और कूड़ाघरों तक पहुँचाती है तूने कभी ये क्यूँ नहीं देखा... इस अधूरी कविता काे पूरा सुनिए ऑडियो की मदद से...

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