गुरुवार, 28 जुलाई 2016
चलते-चलते थक गए पैर.... गोपालदास "नीरज"
कविता का अंश...चलते-चलते थक गए पैर फिर भी चलता जाता हूँ!
पीते-पीते मुँद गए नयन फिर भी पीता जाता हूँ!
झुलसाया जग ने यह जीवन इतना कि राख भी जलती है,
रह गई साँस है एक सिर्फ वह भी तो आज मचलती है,
क्या ऐसा भी जलना देखा-
जलना न चाहता हूँ लेकिन फिर भी जलता जाता हूँ!
चलते-चलते थक गए पैर फिर भी चलता जाता हूँ!
बसने से पहले लुटता है दीवानों का संसार सुघर,
खुद की समाधि पर दीपक बन जलता प्राणों का प्यार मधुर,
कैसे संसार बसे मेरा-
हूँ कर से बना रहा लेकिन पग से ढाता जात हूँ!
चलते-चलते थक गए पैर फिर भी चलता जाता हूँ! इस अधूरी कविता को पूरा सुनिए ऑडियो के माध्यम से...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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