शुक्रवार, 15 जुलाई 2016
कहानी - ग्रीटिंग कार्ड - हरीश कुमार
कहानी का अंश...
वो शायद कालेज के दिनों का पहला प्रेम रहा होगा शायद नहीं भी । पास से गुजरते हुए अपनी ही सहपाठिका का मुस्करा भर देना प्रेम है या नहीं ये बड़ा अजीब प्रश्न है और पहेली भी । ऐसी पहेली के साथ जीना भी एक अजीब सी जिज्ञासा में उलझाये हुए आपके मन को सर्दियों की धूप जैसा आराम देता है । मुझे याद है कालेज का पहला दिन । मैं सुबह-सुबह छत पर बने कमरे में लगे शीशे को देख कर अपने बाल संँवार रहा था ।
सामने की छत पर से राज भाभी ने कहा ।
'' अरे वाह आज तो ऐसा लग रहा है कि कालेज जाना है । ''
मेरे लिए ये समझना बड़ा कठिन था कि भाभी को कैसे पता चला और बाल सँवारने से इसका क्या सम्बन्ध है?
अब अचानक ही अकेले रहना और किसी की मुस्कुराहट को याद करते हुए मुस्करा देना वाकई मेरे भीतर बचपन की ग्रीटिंग कार्ड और पद्मिनी कोल्हापुरी की याद ताजा कर रहा था । अगर भाभी छत पर होती तो मैं छत पर न जाता । मुझे उससे शर्म आती थी जैसे वो मेरे सारे भेद मेरी आँखों से ही जान लेगी मुझे इसका डर सताता ।
नया साल फिर से नजदीक आ रहा था और अब मैं कालेज में था। मेरे पास से गुजरने वाली मुस्कुराती लड़की मेरी मित्र बन चुकी थी । इसके आगे अभी हम न बढे थे मुझे कहीं न कहीं उसे खोने का डर सताता । खोने का दर्द क्या होता है शायद इसका अहसास मेरे खो गए उस पिल्ले की याद से गहरा जुड़ा था ।
कालेज के ये दिन बडे सुहाने थे । गर्मी का चिपचिपा अहसास और ऊब खत्म हो चुका था । दिसम्बर के शुरूआती दिन थे । धूप का आनंद उसमें ज्यादा देर तक बैठे रहने से खो जाता और फिर हम कालेज में लगे पेड़ों की छाव में ठंडा पानी पीकर बैठ जाते । कुछ दोस्तों के ग्रुप में हम दोनों भी शामिल थे । हम ग्रुप में ही घूमते पर इस ग्रुप में भी सबके अपने निजी साथी थे । मैं और वो ग्रुप में होते हुए भी अपने में ज्यादा खोये रहते । घर आने के बाद अगले दिन का इन्तजार बड़ा लम्बा लगता ।
मैंने नए साल पर अपनी इस मित्र को ग्रीटिंग कार्ड देने की कई योजनाएँ बनाई। उसमें क्या लिखना है -इसके बारे में घंटों सोचा । मैं अपने कमरे में इस को लेकर अजीब कल्पनाओं में खोया रहता और घर वालों की आवाजें मुझे न सुनाई देतीं ।
'' पता नहीं ये लड़का सारा दिन क्या खिचड़ी पकाता रहता है चीनी खत्म हो गयी है .जा बाजार से ले आ जाकर । अभी ये आ जायेंगे तो कहेंगे कि लड़का बड़ा हो गया है जो सामान चाहिए होता है इसे लिस्ट बना कर दे दिया करो । बाजार से ले आया करेगा । अब इसे चीजों के मोल भाव की समझ आनी चाहिए । '' माँ
बड़बड़ाती हुई कहती । मैं मुस्कराता हुआ और कई बार खीजते हुआ सामान की पर्ची लेकर बाजार चला जाता । मेरी नजर बाजार की दुकानों पर सजे रंग बिरंगे खूबसूरत ग्रीटिंग कार्डों पर ही रुक जाती । मैं उन्हें हसरत भरी निगाहों से देखता और उनमें से कई कार्डों को हाथ में लेकर एक काल्पनिक दृश्य देखता जिसमें मैं यह कार्ड अपनी उस मुस्कुराती हुयी खूबसूरत लगने वाली मित्र को दे रहा होता । मुझे लगता कि मेरा प्रेम निवेदन सफल सन्देश के रूप में उस तक पहुंचेगा । और ये सोचता हुआ मैं ग्रीटिंग कार्ड पर बने बड़े से दिल और उस पर प्यार की लिखी खूबसूरत चंद पंक्तिया बार बार पढ़ता । मैं ये यकीन करना चाहता था कि जो मैं कहना चाहता हूँ उस बात का हर शब्द इन इबारतों में पूरी तरह समाया हो । आगे की कहानी जानिए ऑडियो की मदद से...
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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