बुधवार, 6 जुलाई 2016
बाल कविताएँ - शादाब आलम
आजाद परिंदा... कविता का अंश... खुले गगन में जिंदा हूँ मैं,
इक आजाद परिंदा हूँ मैं।
लंबी-लंबी अपनी राहें,
उड़ूँ हवा में खोले बाँहें।
घूमूँ टहलूँ जाऊँ कहीं भी,
उछलूँ नाचूँ, गाऊँ कहीं भी।
किसी तरह का भी ना डर है,
सारी दुनिया अपना घर है।
कभी दूर तो कभी बगल में,
कभी झोपड़ी कभी महल में।
मंदिर-मस्जिद व गुरद्वारे,
नदी, समंदर, झील किनारे।
कभी लोटता रहूँ रेत में,
कभी खेलता फिरूँ खेत में।
पर्वत की चोटी को छूलूँ,
मस्त पवन के झूले झूलूँ।
बाग-बगीचों में मैं जाऊँ,
अपनी मर्जी के फल खाऊँ।
झरने का मीठा जल पीता,
इसी तरह मैं हर दिन जीता। ऐसी ही अन्य बाल कविताओं को सुनने के लिए आॅडियो की मदद लीजिए...
सम्पर्क - shadab.alam60@gmail.com
लेबल:
दिव्य दृष्टि,
बाल कविता
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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