शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

मैथिलीशरण गुप्त - पंचवटी - 7

पंचवटी का अंश... कह सकते हो तुम कि चन्द्र का, कौन दोष जो ठगा चकोर? किन्तु कलाधर ने डाला है, किरण-जाल क्यों उसकी ओर? दीप्ति दिखाता यदि न दीप तो, जलता कैसे कूद पतंग? वाद्य-मुग्ध करके ही फिर क्या, व्याध पकड़ता नहीं कुरंग? लेकर इतना रूप कहो तुम, दीख पड़े क्यों मुझे छली? चले प्रभात वात फिर भी क्या, खिले न कोमल-कमल कली?" कहने लगे सुलक्षण लक्ष्मण-"हे विलक्षणे, ठहरो तुम; पवनाधीन पताका-सी यों, जिधर-तिधर मत फहरो तुम। जिसकी रूप-स्तुति करती हो, तुम आवेग युक्त इतनी, उसके शील और कुल की भी, अवगति है तुमको कितनी?" उत्तर देती हुई कामिनी, बोली अंग शिथिल करके- "हे नर, यह क्या पूछ रहे हो, अब तुम हाय! हृदय हरके? अपना ही कुल-शील प्रेम में, पड़कर नहीं देखतीं हम, प्रेम-पात्र का क्या देखेंगी, प्रिय हैं जिसे लेखतीं हम? रात बीतने पर है अब तो, मीठे बोल बोल दो तुम; प्रेमातिथि है खड़ा द्वार पर, हृदय-कपाट खोल दो तुम।" इस पूरी कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

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