शुक्रवार, 22 जुलाई 2016
मैथिलीशरण गुप्त - पंचवटी - 3
पंचवटी का अंश... वैतालिक विहंग भाभी के, सम्प्रति ध्यान लग्न-से हैं,
नये गान की रचना में वे, कवि-कुल तुल्य मग्न-से हैं।
बीच-बीच में नर्तक केकी, मानो यह कह देता है--
मैं तो प्रस्तुत हूँ देखें कल, कौन बड़ाई लेता है॥
आँखों के आगे हरियाली, रहती है हर घड़ी यहाँ,
जहाँ तहाँ झाड़ी में झिरती, है झरनों की झड़ी यहाँ।
वन की एक एक हिमकणिका, जैसी सरस और शुचि है,
क्या सौ-सौ नागरिक जनों की, वैसी विमल रम्य रुचि है?
मुनियों का सत्संग यहाँ है, जिन्हें हुआ है तत्व-ज्ञान,
सुनने को मिलते हैं उनसे, नित्य नये अनुपम आख्यान।
जितने कष्ट-कण्टकों में है, जिनका जीवन-सुमन खिला,
गौरव गन्ध उन्हें उतना ही, अत्र तत्र सर्वत्र मिला।
शुभ सिद्धान्त वाक्य पढ़ते हैं, शुक-सारी भी आश्रम के,
मुनि कन्याएँ यश गाती हैं, क्या ही पुण्य-पराक्रम के।
अहा! आर्य्य के विपिन राज्य में, सुखपूर्वक सब जीते हैं,
सिंह और मृग एक घाट पर, आकर पानी पीते हैं।
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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