गुरुवार, 21 जुलाई 2016
कहानी - इकलौती पत्नी - अर्चना सिंह ‘जया’
कहानी का अंश...
आज की शाम एक अजीब-सा एहसास लिए हुए है। ऐसा लग रहा है कि फिर वही बेबस शाम जीवन में दस्तक दे रही है जिसने मुझे हिलाकर रख दिया था। वैसे देखा जाए तो ये एक अजीब बात थी मैंए गायत्री उसी अस्पताल में उसी बिस्तर पर उसी केबिन में 10 दिनों से बीमार थी। ये महज़ इत्तिफ़ाक़ ही तो था और क्या थाघ् मगर आँखें धुँधली हो चलीं थी क्योंकि आँसुओं ने अपनी जगह बना ली थी। डॉक्टरों के अनुसार मैं तीन-चार महीनों से ज़्यादा नहीं जीने वाली थीए एक बड़ी बीमारी ने मेरा दामन जो थाम रखा था।
मैं बिस्तर पर लेटी-लेटी अपनी ज़िंदगी के सारे गुज़रे पलों को जैसे किसी फ़िल्म के समान देखने लगी थी। अभी मैंने शादी करके अपने ससुराल में प्रवेश ही किया था कि तरह.तरह की बातें होने लगी थीं। उस ज़माने में भी मेरे बाबू जी ने अच्छी.ख़ासी दहेज़ की रक़म दी थी जिससे सभी की आँखें चौंधियाने लगी थीं। पति को साइकिल भी मिली थी। दौरा में पैर डाल कर मेरा गृहप्रवेश हुआ थाए गाँव का मिट्टी का वह घर और मैं शहर की लड़की। मुझे ज़रा परेशानी तो हुई पर पति का साथए सब कुछ आसान कर देता था। जहाँ पति पढ़े-लिखे व नौकरी करते थे। वहीं मैं केवल नवीं पास थी। मुझे चार ननदें और एक देवर मिले। सास नहीं थीं। ससुर साक्षात् ईश्वर स्वरूप थे। मेरे मन में एक डर घर करता जा रहा था कि मुझे अपनी ननदों के साथ गाँव में ही कहीं न रहना पड़े और पति अकेले ही शहर न चले जाएँ। ये ईश्वर की कृपा ही तो थी कि मुझे शहर जाने की इजाज़त मिल गई। पति से दूर रहने की कल्पना मात्र से भी मैं परेशान हो जाती थी।
शहर की रंगीनियों के बीच मैं अपने पति व तीसरी ननद के साथ आकर रहने लगी। ननदों की शादी में पति ने पूर्ण सहयोग दियाए ससुर लड़का खोजकर विवाह तय करते और मेरे पति धनराशि देकर मदद करते थे। मैं बड़ी भाभी होने का फ़र्ज़ निभाती गई। बेटी जब तक मायके में रहती है उसे ज़िम्मेदारी का एहसास भी नहीं होता पर शादी होने के पश्चात् जैसे वो परिपक्व हो जाती है। एक नए परिवार से ख़ुद का रिश्ता जोड़ने में उसे कुछ समझौते भी करने पड़ते हैंए कई इच्छाओं का त्याग भी करना पड़ता है। जबकि मेरे ससुर जी की सोच सुलझी हुई थीए दुलहिन वहीं रहेगी जिसके साथ उसकी शादी हुई है। मेरी बेटियों को सम्भालने की ज़िम्मेदारी मेरी ही है।
बाबुजी शायद पत्नी के विछोह का दर्द समझ रहे थे। उनका स्वर्गवास पाँचवें बच्चे के जन्म के समय हुआ था। बाबुजी गाँव पर ही सम्मिलित परिवार में रहते थेए जहाँ उनके बच्चों की देख-रेख बड़े भाई की पत्नी किया करती थीं। इसलिए ननदें अगर मेरी साड़ी कपड़े में से कुछ माँग बैठतीं तो मैं ना नहीं कर पाती थीए भले ही वो मेरी पसंदीदा वस्तु क्यों न हो, मुझे अपने पति के साथ रहने का अवसर जो प्राप्त थाए इस बात की मैं सदा ही शुक्रगुज़ार थी। साथ ही देवर भी अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए हमारे साथ रहने लगे। इन सब के दौरान मेरे भी दो बच्चे हो गए। हर परिवार की तरह हमारे परिवार में भी कुछ उतार चढ़ाव हुए, पर वो समय भी नहीं थमा। गुज़र ही गया। आगे की कहानी जानिए ऑडियो की मदद से...
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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भारती परिमल जी अाप की आवाज सुंदर व भावपूर्ण भी है। आपकी आवाज कहानी में जान डाल देती है। संवेदनाओं के पंख, दिव्य दृष्टि की सदा आभारी रहूँगी सधन्यवाद
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