रविवार, 24 जुलाई 2016

कविता - उर्मिला - राजेश्वर वशिष्ठ

कविता का अंश...टिमटिमाते दियों से जगमगा रही है अयोध्या सरयू में हो रहा है दीप-दान संगीत और नृत्य के सम्मोहन में हैं सारे नगरवासी हर तरफ जयघोष है ---- अयोध्या में लौट आए हैं राम ! अन्धेरे में डूबा है उर्मिला का कक्ष अन्धेरा जो पिछले चौदह वर्षों से रच बस गया है उसकी आत्मा में जैसे मन्दिर के गर्भ-गृह में जमता चला जाता है सुरमई धुँआ और धीमा होता जाता है प्रकाश ! वह किसी मनस्विनी-सी उदास ताक रही हैं शून्य में सोचते हुए --- राम और सीता के साथ अवश्य ही लौट आए होंगे लक्ष्मण पर उनके लिए उर्मिला से अधिक महत्वपूर्ण है अपने भ्रातृधर्म का अनुशीलन उन्हें अब भी तो लगता होगा ---- हमारे समाज में स्त्रियाँ ही तो बनती हैं धर्म-ध्वज की यात्रा में अवांछित रुकावट --- सोच कर सिसक उठती है उर्मिला चुपके से काजल के साथ बह जाती है नींद जो अब तक उसके साथ रह रही थी सहचरी-सी ! अतीत घूमता है किसी चलचित्र-सा गाल से होकर टपकते आँसुओं में बहने लगते हैं कितने ही बिम्ब ! इस कविता का पूरा आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

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