शनिवार, 30 जुलाई 2016
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!... - हरिवंशराय बच्चन
कविता का अंश... तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!
रात का अंतिम प्रहर है, झिलमिलाते हैं सितारे,
वक्ष पर युग बाहु बाँधे, मैं खड़ा सागर किनारे
वेग से बहता प्रभंजन, केश-पट मेरे उड़ाता,
शून्य में भरता उदधि-उर की रहस्यमयी पुकारें,
इन पुकारों की प्रतिध्वनि, हो रही मेरे हृदय में,
है प्रतिच्छायित जहाँ पर, सिंधु का हिल्लोल - कंपन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं,आज लहरों में निमंत्रण!
विश्व की संपूर्ण पीड़ा सम्मिलित हो रो रही है,
शुष्क पृथ्वी आँसुओं से पाँव अपने धो रही है,
इस धरा पर जो बसी दुनिया यही अनुरूप उसके--
इस व्यथा से हो न विचलित नींद सुख की सो रही है,
क्यों धरणि अब तक न गलकर लीन जलनिधि में गई हो?
देखते क्यों नेत्र कवि के भूमि पर जड़-तुल्य जीवन?
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!
जड़ जगत में वास कर भी, जड़ नहीं व्यवहार कवि का
भावनाओं से विनिर्मित, और ही संसार कवि का,
बूँद के उच्छ्वास को भी, अनसुनी करता नहीं वह,
किस तरह होता उपेक्षा-पात्र पारावार कवि का,
विश्व-पीड़ा से, सुपरिचित, हो तरल बनने, पिघलने,
त्याग कर आया यहाँ कवि, स्वप्न-लोकों के प्रलोभन।
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण।
जिस तरह मरु के हृदय में, है कहीं लहरा रहा सर,
जिस तरह पावस-पवन में, है पपीहे का छिपा स्वर
जिस तरह से अश्रु-आहों से, भरी कवि की निशा में
नींद की परियाँ बनातीं, कल्पना का लोक सुखकर
सिंधु के इस तीव्र हाहाकार ने, विश्वास मेरा,
है छिपा रक्खा कहीं पर, एक रस-परिपूर्ण गायन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण
नेत्र सहसा आज मेरे, तम-पटल के पार जाकर
देखते हैं रत्न-सीपी से, बना प्रासाद सुन्दर
है खड़ी जिसमें उषा ले, दीप कुंचित रश्मियों का,
ज्योति में जिसकी सुनहरली, सिंधु कन्याएँ मनोहर
गूढ़ अर्थों से भरी मुद्रा, बनाकर गान करतीं
और करतीं अति अलौकिक, ताल पर उन्मत्त नर्तन!
तीर पर कैसे रुकूँ मैं, आज लहरों में निमंत्रण!
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कविता,
दिव्य दृष्टि

पथ की पहचान... - हरिवंशराय बच्चन
कविता का अंश... पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले
पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी,
हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की ज़बानी,
अनगिनत राही गए इस राह से, उनका पता क्या,
पर गए कुछ लोग इस पर छोड़ पैरों की निशानी,
यह निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है,
खोल इसका अर्थ, पंथी, पंथ का अनुमान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।
है अनिश्चित किस जगह पर सरित, गिरि, गह्वर मिलेंगे,
है अनिश्चित किस जगह पर बाग वन सुंदर मिलेंगे,
किस जगह यात्रा ख़तम हो जाएगी, यह भी अनिश्चित,
है अनिश्चित कब सुमन, कब कंटकों के शर मिलेंगे
कौन सहसा छूट जाएँगे, मिलेंगे कौन सहसा,
आ पड़े कुछ भी, रुकेगा तू न, ऐसी आन कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।
कौन कहता है कि स्वप्नों को न आने दे हृदय में,
देखते सब हैं इन्हें अपनी उमर, अपने समय में,
और तू कर यत्न भी तो, मिल नहीं सकती सफलता,
ये उदय होते लिए कुछ ध्येय नयनों के निलय में,
किन्तु जग के पंथ पर यदि, स्वप्न दो तो सत्य दो सौ,
स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो, सत्य का भी ज्ञान कर ले।
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।
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दिव्य दृष्टि

तुम गा दो मेरा गान अमर हो जाए.... - हरिवंशराय बच्चन
कविता का अंश...
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
मेरे वर्ण-वर्ण विश्रंखल,
चरण-चरण भरमाए,
गूंज-गूंज कर मिटने वाले
मैनें गीत बनाये;
कूक हो गई हूक गगन की
कोकिल के कंठो पर,
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
जब-जब जग ने कर फैलाए,
मैनें कोष लुटाया,
रंक हुआ मैं निज निधि खोकर
जगती ने क्या पाया!
भेंट न जिसमें मैं कुछ खोऊं,
पर तुम सब कुछ पाओ,
तुम ले लो, मेरा दान अमर हो जाए!
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए!
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कविता,
दिव्य दृष्टि

इस पार उस पार.... - हरिवंशराय बच्चन
कविता का अंश... इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है!
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जाएँगे,
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
प्याला है पर पी पाएँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थबना कितना हमको,
कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
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कविता,
दिव्य दृष्टि

जो बीत गई सो बात गयी... - हरिवंशराय बच्चन
कविता का अंश... जो बीत गई सो बात गई
जीवन में एक सितारा था,
माना वह बेहद प्यारा था,
वह डूब गया तो डूब गया,
अम्बर के आनन को देखो,
कितने इसके तारे टूटे,
कितने इसके प्यारे छूटे,
जो छूट गए फिर कहाँ मिले,
पर बोलो टूटे तारों पर,
कब अम्बर शोक मनाता है,
जो बीत गई सो बात गई।
जीवन में वह था एक कुसुम,
थे उसपर नित्य निछावर तुम,
वह सूख गया तो सूख गया,
मधुवन की छाती को देखो,
सूखी कितनी इसकी कलियाँ,
मुर्झाई कितनी वल्लरियाँ,
जो मुर्झाई फिर कहाँ खिली,
पर बोलो सूखे फूलों पर,
कब मधुवन शोर मचाता है,
जो बीत गई सो बात गई।
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कविता,
दिव्य दृष्टि

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016
बाल कहानी - विवाह समस्या
कहानी का अंश…
वीरसत्व हेलापुरी के एक संपन्न निवासी थे। उनका एक ही पुत्र था। जो बड़ा ही सज्जन, चतुर और आकर्षक था। वीरसत्व उसी प्रकार एक सुंदर, सुशील और काम-काज में दक्ष पुत्र-वधु की खोज में थे। इसके लिए उन्होंने अपने दोस्तों और जान-पहचान के लोगों की लड़कियों को स्वयं देखा। कुछ लड़कियाँ सुशील, चतुर तो थी परन्तु सुन्दर नहीं थी। यदि सुन्दर लड़कियाँ देखी तो उनकी बुद्धि नहीं के बराबर थी। उनकी समझ में नहीं आया कि क्या किया जाए? पुत्र का विवाह वीरसत्व के लिए एक गंभीर समस्या बन गया। एक दिन रामचंद्र नामक उनका एक संबंधी उनके घर आया। वीरसत्व ने उन्हें भी अपने बेटे की विवाह समस्या बताई और कहा कि - मैंने सोचा था कि इस विषय में कोई समस्या नहीं होगी। सब कार्य आसानी से हो जाएगा। परन्तु कोई उपाय ही नहीं सूझ रहा है। मैं बहुत परेशान हूँ। कहीं ऐसा तो नहीं कि निर्णय लेने में मुझसे कोई भूल हो रही हो? रामचंद्र थोड़ी देर तक सोचते रहे और फिर कहा - लड़के या लड़की को देखकर हम आसानी से इस बात का पता लगा लेते हैं कि वे सुंदर हैं या नहीं? वे स्वस्थ हैं या नहीं? किन्तु उनकी बुद्धि का अनुमान लगाना चाहते हैं तो यह उनकी बातों या कार्यों को देख-सुनकर ही पता लगाया जा सकता है। संभवत: तुमने भी रूप देखकर और कुछ प्रश्न पूछकर ही भूल की है। जिसके कारण तुम्हें एक योग्य बहू खोजने में परेशानी हो रही है। वीरसत्व ने रामचंद्र की बातों की वास्तविकता को स्वीकार किया। फिर रामचंद्र ने उसे एक उपाय बताया। क्या था वह उपाय? क्या उस उपाय से वीरसत्व को कुछ लाभ हुआ? उसे अपने पुत्र के लिए एक योग्य कन्या मिली? इन सारी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए ऑडियो की सहायता लीजिए और आगे की कहानी जानिए ऑडियो की मदद से…
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कहानी,
दिव्य दृष्टि

कुछ कविताएँ - दीप्ति नवल
कविता का अंश... मैंने देखा है दूर कहीं पर्बतों के पेड़ों पर
शाम जब चुपके से बसेरा कर ले
और बकिरयों का झुंड लिए कोई चरवाहा
कच्ची-कच्ची पगडंडियों से होकर
पहाड़ के नीचे उतरता हो
मैंने देखा है जब ढलानों पे साए-से उमड़ने लगें
और नीचे घाटी में
वो अकेला-सा बरसाती चश्मा
छुपते सूरज को छू लेने के लिए भागे
हाँ, देखा है ऐसे में और सुना भी है
इन गहरी ठंडी वादियों में गूँजता हुआ कहीं पर
बाँसुरी का सुर कोई़...
तब
यूँ ही किसी चोटी पर
देवदार के पेड़ के नीचे खड़े-खड़े
मैंने दिन को रात में बदलते हुए देखा है!
ऐसी ही अन्य कविताओं का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
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कविता,
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सती सावित्री की कथा
कहानी का अंश….
मद्र देश के राजा का नाम अश्वपति था। उनके कोई भी सन्तान न थी इसलिये उन्होंने सन्तान प्राप्ति के लिये सावित्री देवी की बड़ी उपासना की जिसके फलस्वरूप उनकी एक अत्यन्त सुन्दर कन्या उत्पन्न हुई। सावित्री देवी की कृपा से उत्पन्न उस कन्या का नाम अश्वपति ने सावित्री ही रख दिया।
"सावित्री की उम्र, रूप, गुण और लावण्य शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगे और वह युवावस्था को प्राप्त हो गई। अब उसके पिता राजा अश्वपति को उसके विवाह की चिन्ता होने लगी। एक दिन उन्होंने सावित्री को बुला कर कहा कि पुत्री! तुम अत्यन्त विदुषी हो अतः अपने अनुरूप पति की खोज तुम स्वयं ही कर लो। पिता की आज्ञा पाकर सावित्री एक वृद्ध तथा अत्यन्त बुद्धिमान मन्त्री को साथ लेकर पति की खोज हेतु देश-विदेश के पर्यटन के लिये निकल पड़ी। जब वह अपना पर्यटन कर वापस अपने घर लौटी तो उस समय सावित्री के पिता देवर्षि नारद के साथ भगवत्चर्चा कर रहे थे। सावित्री ने दोनों को प्रणाम किया और कहा कि हे पिता! आपकी आज्ञानुसार मैं पति का चुनाव करने के लिये अनेक देशों का पर्यटन कर वापस लौटी हूँ। शाल्व देश में द्युमत्सेन नाम से विख्यात एक बड़े ही धर्मात्मा राजा थे। किन्तु बाद में दैववश वे अन्धे हो गए। जब वे अन्धे हुए उस समय उनके पुत्र की बाल्यावस्था थी। द्युमत्सेन के अंधत्व तथा उनके पुत्र के बाल्यपन का लाभ उठा कर उसके पड़ोसी राजा ने उनका राज्य छीन लिया। तब से वे अपनी पत्नी एवं पुत्र सत्यवान के साथ वन में चले आये और कठोर व्रतों का पालन करने लगे। उनके पुत्र सत्यवान अब युवा हो गये हैं, वे सर्वथा मेरे योग्य हैं इसलिये उन्हीं को मैंने पतिरूप में चुना है।
"सावित्री की बातें सुनकर देवर्षि नारद बोले कि हे राजन्! पति के रूप में सत्यवान का चुनाव करके सावित्री ने बड़ी भूल की है। नारद जी के वचनों को सुनकर अश्वपति चिन्तित होकर बोले के हे देवर्षि! सत्यवान में ऐसे कौन से अवगुण हैं जो आप ऐसा कह रहे हैं? इस पर नारद जी ने कहा कि राजन्! सत्यवान तो वास्तव में सत्य का ही रूप है और समस्त गुणों का स्वामी है। किन्तु वह अल्पायु है और उसकी आयु केवल एक वर्ष ही शेष रह गई है। उसके बाद वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। आगे की कहानी ऑडियो की मदद से जानिए…
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सती अनसूया की कथा...
कहानी का अंश…
सती अनसूया महर्षि अत्री की पत्नी थी। जो अपने पतिव्रता धर्म के कारण सुविख्यात थी। एक दिन देव ऋषि नारद जी बारी-बारी से विष्णुजी, शिव जी और ब्रह्मा जी की अनुपस्थिति में विष्णु लोक, शिवलोक तथा ब्रह्मलोक पहुंँचे। वहांँ जाकर उन्होंने लक्ष्मी जी, पार्वती जी और सावित्री जी के सामने अनुसुइया के पतिव्रत धर्म की बढ़ चढ़ के प्रशंसा की तथा कहा कि समस्त सृष्टि में उससे बढ़ कर कोई पतिव्रता नहीं है। नारद जी की बाते सुनकर तीनो देवियाँ सोचने लगी कि आखिर अनसूया के पतिव्रत धर्म में ऐसी क्या बात है जो उसकी चर्चा स्वर्गलोक तक हो रही है ? तीनो देवियों को अनसूया से ईर्ष्या होने लगी।
नारद जी के वहाँ से चले जाने के बाद सावित्री, लक्ष्मी तथा पार्वती एक जगह इक्ट्ठी हुई तथा अनसूया के पतिव्रत धर्म को खंडित कराने के बारे में सोचने लगी। उन्होंने निश्चय किया कि हम अपने पतियों को वहाँ भेज कर अनसूया का पतिव्रत धर्म खंडित कराएँगे। ब्रह्मा, विष्णु और शिव जब अपने अपने स्थान पर पहुँचे तो तीनों देवियों ने उनसे अनसूया का पतिव्रत धर्म खंडित कराने की जिद्द की। तीनों देवों ने बहुत समझाया कि यह पाप हमसे मत करवाओ। परंतु तीनों देवियों ने उनकी एक ना सुनी और अंत में तीनो देवो को इसके लिए राजी होना पड़ा।
आगे की कहानी जानिए ऑडियो की मदद से…
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कहानी,
दिव्य दृष्टि

गुरुवार, 28 जुलाई 2016
पन्ना धाय तुम कैसी माँ थी ... - ज्योति चावला
कविता का अंश... पन्ना धाय तुम कैसी माँ थी
जो स्वामीभक्ति के क्षुद्र लोभ में
गँवा दिया तुमने अपना चन्दन-सा पुत्र
मैं जानती हूँ राजपूताना इतिहास के पन्नों पर
लिखा गया है तुम्हारा नाम स्वर्णाक्षरों में
मैं जानती हूँ कि जब-जब याद किया जाएगा
राजपूती परम्परा को, उसके गौरव को
याद आएगा तुम्हारा त्याग, तुम्हारी स्वामीभक्ति और
तुम्हारा अदम्य साहस भी, पर
उन्हीं इतिहास की मोटी क़िताबों मे
कहीं ज़िक्र नहीं है तुम्हारे आँसुओं का
चित्तौड़ के फ़ौलादी क़िलों की फ़ौलादी दीवारों के पार
नहीं आ पाती तुम्हारी सिसकी, तुम्हारी आहें
तुम्हारा रुदन, तुम्हारा क्रन्दन
मैं जानती हूँ पन्ना धाय
जब इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में
लिखा जा रहा था तुम्हारा नाम
ठीक उसी वक़्त तुम रो रही थी सिर पटक
चन्दन की रक्त से लथपथ देह पर
चन्दन की मौत के बाद तुम कहाँ गईं पन्ना धाय
इतिहास को उसकी कोई सुध नहीं
नहीं ढूँढ़ा गया पूरे इतिहास में फिर कभी तुम्हें
तुमसे लेकर तुम्हारे हिस्से का बलिदान
इतिहास मौन हो गया
पन्ना धाय सच बतलाना
कुँवर उदय सिंह की जगह चन्दन को कुर्बान
कर देने की कल्पना भर से क्या
तुम काँप-सी नहीं गई थीं
क्या याद नहीं आए थे वे नौ माह तुम्हें
जब तुम्हारे चाँद-से पुत्र ने आकार लिया था
ठीक तुम्हारी अपनी देह के भीतर
क्या नाभि से बँधा उसकी देह का तार
तुम्हारे दिल से कभी नहीं जुड़ पाया था पन्ना धाय...
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
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कविता,
दिव्य दृष्टि

बाल कविताएँ.... - ज्योत्स्ना शर्मा
कविता का अंश... 1
बड़ी सुहानी धूप खिली है
किरन परी भी आ धमकी है
कॉलगेट कर सूरज आया
दाँतों की पंक्ति चमकी है।
2
मेरी पेंसिल प्यारी-प्यारी
बातें करती कितनी न्यारी
कहे ठीक से पकड़ो भैया
और बनाओ तितली, गैया।
3
देखो पुस्तक कितनी अच्छी
मुझे बताए बातें सच्ची
दुनिया भर की सैर कराए
फूल-फलों से जी ललचाए।
4
आई होली रंग कमाल,
निकली टोली लिए गुलाल।
पाँव छुए फिर सभी बड़ों के;
किया साथियों संग धमाल॥
5
मुँह रँगा है पीला-काला,
ले पिचकारी रंग जब डाला।
झूठ-मूठ अम्मा गुस्साईं;
खिल-खिल करती भागी बाला॥
6
सुबह सुहानी कितनी अच्छी
झटपट सीखें बातें सच्ची
पढ़ें लिखें और हों गुणवान
अपना भारत रहे महान।
7
जब से देखो आया जाड़ा
बढ़ा दिया सूरज ने भाड़ा
थोड़ी –थोड़ी धूप दिखाता
झट से कोहरे में छिप जाता।
ऐसी ही अन्य छोटी-छोटी कविताओं का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
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दिव्य दृष्टि,
बाल कविता

मुझको यक़ीं है सच कहती थीं.... - जावेद अख़्तर
कविता का अंश...मुझको यक़ीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं
जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद में परियाँ रहती थीं
एक ये दिन जब अपनों ने भी हमसे नाता तोड़ लिया
एक वो दिन जब पेड़ की शाख़ें बोझ हमारा सहती थीं
एक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी-रूठी लगती हैं
एक वो दिन जब 'आओ खेलें' सारी गलियाँ कहती थीं
एक ये दिन जब जागी रातें दीवारों को तकती हैं
एक वो दिन जब शामों की भी पलकें बोझल रहती थीं...
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
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कविता,
दिव्य दृष्टि

ए माँ टेरेसा... - जावेद अख़्तर
कविता का अंश... ए माँ टेरेसा
मुझको तेरी अज़मत से इनकार नहीं है
जाने कितने सूखे लब और वीराँ आँखें
जाने कितने थके बदन और ज़ख़्मी रूहें
कूड़ाघर में रोटी का इक टुकड़ा ढूँढते नंगे बच्चे
फ़ुटपाथों पर गलते सड़ते बुड्ढे कोढ़ी
जाने कितने बेघर बेदर बेकस इनसाँ
जाने कितने टूटे कुचले बेबस इनसाँ
तेरी छाँवों में जीने की हिम्मत पाते हैं
इनको अपने होने की जो सज़ा मिली है
उस होने की सज़ा से
थोड़ी सी ही सही मोहलत पाते हैं
तेरा लम्स मसीहा है
और तेरा करम है एक समंदर
जिसका कोई पार नहीं है
ए माँ टेरेसा
मुझको तेरी अज़मत से इनकार नहीं है
मैं ठहरा ख़ुदगर्ज़
बस इक अपनी ही ख़ातिर जीनेवाला
मैं तुझसे किस मुँह से पूछूँ
तूने कभी ये क्यूँ नहीं पूछा
किसने इन बदहालों को बदहाल किया है
तुने कभी ये क्यूँ नहीं सोचा
कौन-सी ताक़त
इंसानों से जीने का हक़ छीन के
उनको फ़ुटपाथों और कूड़ाघरों तक पहुँचाती है
तूने कभी ये क्यूँ नहीं देखा... इस अधूरी कविता काे पूरा सुनिए ऑडियो की मदद से...
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कविता,
दिव्य दृष्टि

चलते-चलते थक गए पैर.... गोपालदास "नीरज"
कविता का अंश...चलते-चलते थक गए पैर फिर भी चलता जाता हूँ!
पीते-पीते मुँद गए नयन फिर भी पीता जाता हूँ!
झुलसाया जग ने यह जीवन इतना कि राख भी जलती है,
रह गई साँस है एक सिर्फ वह भी तो आज मचलती है,
क्या ऐसा भी जलना देखा-
जलना न चाहता हूँ लेकिन फिर भी जलता जाता हूँ!
चलते-चलते थक गए पैर फिर भी चलता जाता हूँ!
बसने से पहले लुटता है दीवानों का संसार सुघर,
खुद की समाधि पर दीपक बन जलता प्राणों का प्यार मधुर,
कैसे संसार बसे मेरा-
हूँ कर से बना रहा लेकिन पग से ढाता जात हूँ!
चलते-चलते थक गए पैर फिर भी चलता जाता हूँ! इस अधूरी कविता को पूरा सुनिए ऑडियो के माध्यम से...
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कविता,
दिव्य दृष्टि

स्वप्न झरे फूल से... - गोपालदास "नीरज"
कविता का अंश...स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई
चाह तो निकल सकी न पर उमर निकल गई
गीत अश्क बन गए छंद हो दफन गए
साथ के सभी दिऐ धुआँ पहन पहन गए
और हम झुके-झुके मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा
क्या जमाल था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ़ जमीन और आसमाँ उधर उठा
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा
एक दिन मगर यहाँ ऐसी कुछ हवा चली
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली
और हम लुटे-लुटे वक्त से पिटे-पिटे
साँस की शराब का खुमार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।
इस पूरी कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
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कविता,
दिव्य दृष्टि

इसीलिए तो नगर -नगर ... - गोपालदास "नीरज’’
कविता का अंश... इसीलिए तो नगर-नगर बदनाम हो गये मेरे आँसू
मैं उनका हो गया कि जिनका कोई पहरेदार नहीं था|
जिनका दुःख लिखने की ख़ातिर
मिली न इतिहासों को स्याही,
क़ानूनों को नाखुश करके
मैंने उनकी भरी गवाही
जले उमर-भर फिर भी जिनकी
अर्थी उठी अँधेरे में ही,
खुशियों की नौकरी छोड़कर
मैं उनका बन गया सिपाही
पदलोभी आलोचक कैसे करता दर्द पुरस्कृत मेरा
मैंने जो कुछ गाया उसमें करुणा थी श्रृंगार नहीं था|
मैंने चाहा नहीं कि कोई
आकर मेरा दर्द बंटाये,
बस यह ख़्वाहिश रही कि-
मेरी उमर ज़माने को लग जाये,
चमचम चूनर-चोली पर तो
लाखों ही थे लिखने वाले,
मेरी मगर ढिठाई मैंने
फटी कमीज़ों के गुन गाये,
इसका ही यह फल है शायद कल जब मैं निकला दुनिया में
तिल भर ठौर मुझे देने को मरघट तक तैयार नहीं था|
इस पूरी कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
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कविता,
दिव्य दृष्टि

मंगलवार, 26 जुलाई 2016
बाल कहानी - बौनी राक्षसी
कहानी का अंश…
जंगल के बगल में छोटे और बड़े पहाड़ों से घिरा एक प्रदेश था। वहाँ गुफाएँ भी थीं। इस प्रदेश से एक कोस दूर मातंग नाम का एक गाँव था। मधुकर उसी गाँव की पाठशाला में एक अध्यापक था। हाल ही में उसका विवाह हुआ था। उसकी पत्नी कोमला बड़े अच्छे स्वभाव की थी। एक दिन कोमला अपनी पड़ोसन पल्लवी के साथ ग्रामाधिकारी के घर एक उत्सव में भाग लेने के लिए गई। तब पल्लवी ने उससे कहा - तुमने तो एक भी गहना नहीं पहन रखा है। कम से कम कानों में तो कर्णफूल लगा लो। यह कहते हुए उसने अपने कर्णफूल कोमला को दे दिए। उत्सव की समाप्ति के बाद जब कोमला घर लौटी तो उसने देखा कि एक कर्णफूल गायब है। कील के निकल जाने से एक कर्णफूल रास्ते में गिर गया। कोमला ने पूरी बात अपने पति मधुकर को बताते हुए कहा - मुझे पल्लवी से कर्णफूल लेने ही नहीं चाहिए थे। पर क्या करूँ? वह मान ही नहीं रही थी। कुछ भी हो, नया कर्णफूल लेकर उसे देना ही होगा।
पत्नी की बात सुनकर मधुकर एकदम घबरा गया। उसे लगा मानो पल भर के लिए उसकी साँस ही रूक गई है। नई-नई ब्याही पत्नी थी। न तो उसे डाँटा जा सकता था और न ही गाली-गलौच की जा सकती थी। नया कर्णफूल बनाने में कम से कम एक हजार रूपए लगेंगे। वह क्या करे? कौन उसकी मदद करेगा? उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। दिनभर वह यही सोचता रहा। रात को उसे नींद भी नहीं आई। वह घर से निकल गया। वह खुद नहीं जानता था कि वह कहाँ जा रहा है। बस, चलता जा रहा था। मधुकर को अचानक लगा कि वह पहाड़ी के पास पहुँच गया है। वहाँ उसने पहाड़ी के पास एक बौनी राक्षसी को बैठे हुए देखा। उसे देखते ही वह घबरा गया। फिर क्या हुआ? राक्षसी ने मधुकर के साथ कैसा व्यवहार किया? पल्लवी का कर्णफूल कोमला ने वापस किया या नही? इन सभी सवालों के जवाब जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
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दिव्य दृष्टि,
बाल कहानी

जानलेेवा हो सकता है पोकेमान गो
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आज का सच

कहानी - आमने-सामने
कहानी - आमने-सामने…
कहानी का अंश…
हजारों वर्ष पहले वाराणसी में ब्रह्मदत्त कुमार नाम का एक युवा राजा राज्य करता था। उसका जीवन बहुत सरल था। वह अपना सारा समय इस प्रयास में लगाता था कि उसकी प्रजा कैसे हमेशा सुखी रहे। वह अपने दरबार में कुछ सच्चे और र्ईमानदार सामन्तों को यह पता लगाने के लिए राज्य भर में क्षद्म भेष में घूमने के लिए भेजता था कि अधिकारी गण प्रजा के साथ कैसा व्यवहार करते हैं? यदि कोई अधिकारी या जमीनदार बेईमान या प्रजा के प्रति निर्दय होता तो राजा के पास उसे चेतावनी या दण्ड के लिए भेज दिया जाता था। इतना ही नहीं, राजा प्रजा को आपसी समझदारी और सामंजस्य बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित भी करता था। अपने मतभेदों को पारस्परिक सद्भाव से सुलझा लेने की सलाह भी देता था। राजा के मंत्री उनकी समस्याओं पर विचार करने तथा उनका समाधान करने के लिए बैठकें आयोजित किया करते थे। वाराणसी शीघ्र ही शांति और समृद्धि का आश्रय स्थल बन गया। राजा अपने विश्वासपात्रों से पूछते थे कि क्या बता सकते हो कि प्रजा को प्रशासन में कोई दोष दिखाई देता है? लेकिन राजा से कोई शिकायत नहीं करता था। उन्हें राजा से कोई शिकायत ही नहीं थी। परंतु राजा इस बात से संतोष अनुभव नहीं करता था। वे तीर्थयात्री के वेश में गाँव और बाजारों में घूमते थे और आम लोगों के साथ घुलमिल कर उनके विचार जानते-सुनते। उन्होंने कभी भी किसी को निंदा करते हुए नहीं सुना। एक बार उनके मन में विचार आया कि अपने राज्य से बाहर जाकर सीमान्त क्षेत्र में लोगों के विचार जानने चाहिए। वे अपने सारथी को लेकर सीमान्त क्षेत्र का दौरा करन चल पड़े। आगे क्या हुआ? यह जानने के लिए ऑडियो की सहायता लीजिए…
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रानी रूपमती और बाज बहादुर
कहानी का अंश... रानी रूपमती-बाज बहादुर एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक प्रेमकथा है। रूपमती मालवा की गायिका थीं और सुल्तान बाज बहादुर उनसे प्रेम करते थे। यह अंतर्धार्मिक विवाह था। युद्ध, प्रेम, संगीत और कविता का अद्भुत सम्मिश्रण है यह जादुई प्रेम कहानी। बाज बहादुर मांडु के अंतिम स्वतंत्र शासक थे। रूपमती किसान पुत्री और गायिका थीं। उनकी आवाज के मुरीद बाज बहादुर उन्हें दरबार में ले गए। दोनों परिणय सूत्र में बंध गए, लेकिन यह प्रेम कहानी जल्दी ही खत्म हो गई, जब मुग़ल सम्राट अकबर ने मांडु पर चढाई करने के लिए अधम खान को भेजा। बाज बहादुर ने अपनी छोटी-सी सेना के साथ उसका मुकाबला किया किंतु हार गए। अधम खान रानी रूपमती के सौंदर्य पर मर-मिटा, इससे पूर्व कि वह मांडु के साथ रूपमती को भी अपने कब्जे में लेता, रानी रूपमती ने विष सेवन करके मौत को गले लगा लिया। माण्डू, मध्य प्रदेश का एक ऐसा पर्यटन स्थल है, जो रानी रूपमती और बादशाह बाज बहादुर के अमर प्रेम का साक्षी है। यहाँ के खंडहर व इमारतें हमें इतिहास के उस झरोखे के दर्शन कराते हैं, जिसमें हम मांडू के शासकों की विशाल समृद्ध विरासत व शानो-शौकत से रूबरू होते हैं। रानी रूपमती का किला इनके प्यार का साक्षी है। रानी रूपमती को राजा बाज बहादुर इतना प्यार करते थे कि रानी रूपमती के बिना कुछ कहे ही वो उनके दिल की बात को समझ जाते थे। राजा बाज बहादुर और रानी रूपमती के प्यार के साक्षी मांडू में 3500 फीट की ऊंचाई पर बना रानी रुपमती का किला है। कहते हैं कि रानी रूपमती नर्मदा नदी को देखे बिना भोजन ग्रहण नहीं करती थीं। इसलिए राजा बाज बहादुर ने रानी रूपमती की इच्छा का ध्यान रखते हुए रानी रूपमती किले का निर्माण करवाया। रानी रूपमती के किले से नर्मदा नदी नजर आती है। कहा जाता है कि रानी रूपमती प्रतिदिन स्नान के बाद यहां पहुंचतीं और नर्मदा जी के दर्शन उपरांत अन्न ग्रहण करती थीं। राजा बाज बहादुर रानी रूपमती को बेहद ही प्यार करते थे शायद इसलिए रानी रूपमती के महल तक पहुंचने से पहले राजा बाज बहादुर के महल को पार करना होता था। राजा बाज बहादुर रानी रूपमती की रक्षा के लिए यह सब करते थे। इसलिए शायद आज भी रानी रूपमती के किले को राजा बाज बहादुर और रानी रूपमती की प्रेम कहानी का प्रतीक समझा जाता है। इस कहानी के बारे में जानिए ऑडियो के माध्यम से...
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चिंतन - आशा अमर है...
लेख के बारे मेंं... आशा अमर है...
आशा जीवन का पर्याय है। आशा के अभाव में मनुष्य केवल जिंदा रहता है। जिंदा मनुष्य और जानवरों में कोई भेद नहीं होता। आशा प्रेरणा की पहली किरण है। प्रकाश का महापुंज है। साँसों की परिभाषा है। रिश्तों की गहराई है। सागर की उफनती लहर है। रेगिस्तान की तपती रेत पर पड़ती बूँद है। खिड़की पर बैठी चिडिय़ा है। घने जंगल में भागती हिरनी है। पतझर के बाद का वसंतोत्सव है।मुट्ठी में कैद रेत का अंतिम कण है। सूने आँगन में खिला फूल है। बादल के गालों से टपका आँसू है। सूखी धरती को सुकून देता मृदु जल है। चातक की आँखों का सुकून है। कवि हृदय की कल्पनाओं का आकार है। लेखक के विचारों का विराम है। प्रेयसी की प्रतीक्षा को मुखरित करती पायल की झँकार है। कोकिला की वाणी से निकली कुहू-कुहू की गूँज है। धुँधली साँझ का रेशमी उजाला है। गहरे अँधकार का टिमटिमाता दीया है। भटकते राही का पथ-प्रदर्शक है। पतझर के पीले पत्तों के बीच अँगड़ाई लेती हरी दूब है। लहलहाती धरती पर खिलती पीली सरसों है। मझधार में नाव खेते नाविक के हाथों की ताकत है। नील गगन में उड़ते पंछी के परों का जोश है। बूढ़े किसान की आँखों से झाँकती मुस्कान है। विधवा के श्वेत-श्याम जीवन में बिखरता इंद्रधनुषी रंग है। नारी का शृंगार है। पुरूष का जीवन संसार है। संसार के हर रिश्ते की मजबूत डोर है। घर का कोलाहल है। बिटिया की खिलखिलाहट है। बेटे का दुलार है। ममत्व की ठंडी बयार है। प्रेम की अविरल धारा है। कठिनाइयों की खाई को पाटती मजबूत शिला है। संपूर्ण जीवन का सार है। ईश्वर से मिला अनमोल उपहार है।
आशा के नए नए रूपों से परिचित होने के बाद भी कई रूप ऐसे हैं जो अभी भी अनदेखे ही हैं। अपने अपने अनुभवों के आधार पर ये रूप परिभाषित होते हैं। जिनके जीवन में ये रूप नहीं होते उनका जीवन स्वयं में ही भार रूप होता है। अत: जीवन को भार विहीन बनाने के लिए आशा का दामन थामना बहुत जरूरी है।
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बौद्ध कला का स्वर्ण शिखर - साँची
बौद्ध कला का स्वर्ण शिखर - साँची। लेख के बारे में...
मैं साँची हूँ. मध्यप्रदेश की राजधानी से केवल एक घंटे दूर. वैभव और ऐश्वर्यशाली है मेरा इतिहास. सम्राट अशोक से नाता है मेरा. प्रकृति मेरे आँगन में खेलती है. मेरे करीब ही गूँजी थी संघमित्रा की हँसी. आज भी मेरा मौन यहाँ की पहाडिय़ों में गूँज रहा है. हर वर्ष लाखों शीश श्रद्धा से झुकते हैं मेरे सामने. गौतम बुद्ध के प्रिय शिष्यों की अमानत है मेरे भीतर. जिसे शताव्दियों से सहेजकर रखा है मैंने. कई विशेषताएँ हैं मेरी. मुझे देखने और सुनने प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु आते हैं और मुझमें समा जाते हैं. वर्षों से मैं मौन हूँ, पर मेरा मौन भीतर की आवाज बनकर सबमें समा रहा है. आप जानना चाहेंगे मुझे! तो आइए...
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से मात्र चालीस किलोमीटर दूर मेरे नाम पर रेल्वे स्टेशन है. यहाँ से एक किलोमीटर दूर पहाड़ी पर है मेरा हृदय. स्टेशन पर उतरते ही मेरा मनोरम दृश्य लोगों को लुभाने लगता है. मेरी पहचान मेरे हृदयरूपी स्तूपों के कारण है. यहाँ के स्तूप भारत देश के अन्य स्तूपों की अपेक्षा अधिक सुरक्षित और पूर्ण हैं. जानना चाहते हैं इन स्तूपों को? तो देखो सुबह की पहली किरण के साथ... ये ऐसे लगते हैं. देखा! कैसा लगा, सच मानों इन क्षणों में पूरी प्रकृति ही मुझमें समा जाती है. इन स्तूपों में ईस्वी पूर्व तीसरी शताव्दी से ईस्वी बारहवीं शताव्दी तक की बौद्ध वास्तु एवं शिल्पकला के प्रादुर्भाव, विकास और अवनति का पूरा परिचय मिलता है. इन पंद्रह शताव्दियों में भारत के बौद्ध धर्म का संपूर्ण इतिहास छिपा है. इतना कुछ होने पर भी इस बात पर इतिहास मौन है कि बौद्धों ने मुझ पर इतनी कृपादृष्टि क्यों की? गौतम बुद्ध की किलकारी न तो मेरे आँगन में गूँजी थी और न ही कभी मेरे जीवन को उनके ललाट की लालिमा ने आलोकित किया. इसके अलावा न तो मेरे आँगन में कभी बौद्धों का कोई महासम्मेलन हुआ न ही कोई ऐसी महत्वपूर्ण घटना की ही मैं साक्षी हूँ. फिर भी उनकी स्मृतियाँ मेरे मानस पटल पर छाई हुई हैं. यहाँ तक कि चीनी यात्री ह्वेनसांग भी अपने संस्मरणों में मेरा जिक्र नहीं किया है.
अब आप मुझसे पूछेंगे कि आखिर मेरी प्रसिद्धि इतनी क्यों है? तो मैं बता दूँ कि मेरी प्रसिद्धि का कारण ये स्तूप, संधागार, मंदिर और स्तंभ हैं. आओ अब मैं बता दूँ अपने आँगन के सबसे बेशकीमती हीरे के बारे में. ये देखो स्तूप क्रमांक एक.. यही है वह मेरे आँगन का अमोल हीरा. जिसे अब तक विश्व के लाखों लोगों ने निहारा है. आप भी निहार सकते हैं, पर निहारने से क्या होगा. इसके बारे में कुछ मालूम तो होना ही चाहिए ना.
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रविवार, 24 जुलाई 2016
कविता - याज्ञसेनी - 3 - राजेश्वर वशिष्ठ
कविता का अंश...याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं !
वैभव सिराहने से लगा कर
रात भर सोई नहीं हूँ
चन्द्रमा की रोशनी में
स्मरण करना चाहती हूँ
उन पलों को
जो छिपे होंगे कहीं
मेरा अघोषित भूत बन कर
आश्चर्य है,
शैशवविहीना, मैं हुई हूँ क्यों !
महल की प्राचीर के नीचे
उषा की लालिमा में
भूख से व्याकुल
रो रही है एक कन्या
बहुत छोटी, बहुत नाजुक;
माँ स्नेह से व्याकुल लपकती है
हृदय से बाँध लेने को
अपलक देखती है द्रौपदी
इस स्नेहबंधन को
मधुर वात्सल्य का रस है !
चहकते पक्षियों से
ताल पूरा भर गया है
वे पथिक हैं, दूर उड़ कर जा रहे हैं
प्रशस्ति में वरुण की
कूकते हैं वे ऋचाएँ
और बादल-राग में
मल्हार किंचित गा रहे हैं
मोगरे के फूल-सा महका,
खिला मन है
हवा भी कसमसाती है,
द्रौपदी इस भोर में
कुछ गुनगुनाती है !
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कविता - याज्ञसेनी - 2 - राजेश्वर वशिष्ठ
कविता का अंश...याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं !
स्त्रियों के जन्म तो होते रहे हैं
स्त्रियाँ ही जन्म देती हैं उन्हें भी
सृष्टि ऐसे ही चली है युग-युगों से !
स्त्रियाँ ही राजमाताएँ,
रानियाँ पट-रानियाँ भी
और वे ही नगर-वधुएँ
एक चुप्पी-सी झलकती है
हमारे धर्म में,
चिन्तन-व्यवस्था में
न्याय क्यों नारी विमुख-सा ही रहा है ?
नलयानी मेरा नाम था
पिछले जन्म में
निषाद कुल सम्राट,
नल थे पिता मेरे
द्यूत-प्रेमी,
जो जंगलों में वनवास जीते थे
और मेरी माँ अलौकिक सुंदरी थी,
श्वेतवर्णा -- नाम दमयन्ती,
देख कर उसको
इन्द्र की भी अप्सराएँ मुँह छुपाती थीं
शुचिता से भरी वह श्रेष्ठता से पूर्ण थी
त्याग की प्रतिमूर्ति थी वह !
नलयानी सुन्दर थी, मुखर थी
माप लेना चाहती थी -- हंसिनी-सी
प्रेम का उत्ताल सागर,
अधखिली-सी कुमुदिनी थी।
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कविता - याज्ञसेनी - 1 - राजेश्वर वशिष्ठ
कविता का अंश... याज्ञसेनी, हाँ द्रौपदी हूँ, मैं !
स्त्रियों के जन्म कब चाहे समय ने,
सभ्यता ने और पुरुषों ने
बस देह ही चाही !
पुत्र की ही चाह तब से आज तक है
युद्ध का नायक बनेगा वह !
मृत्यु पर देगा वही
अग्नि, तर्पण, दान, सज्जा भी
श्राद्ध होंगे पूर्वजों के संकल्प से उसके
राज्य का स्वामी बनेगा वह
कुछ नहीं बदला !
उद्विग्न थे राजा द्रुपद
संग्राम में हारे हुए थे
द्रौणाचार्य ने उनको हराकर
राज्य आधा ले लिया था
वह जानते थे
द्रौण भूलेगा नहीं उस वेदना को
गुरु-पुत्र था वह, मित्र भी था
बालपन में साथ थे वे,
दीक्षित हुए थे एक ही दिन !
एक राजा निर्धनों को
क्यों करे स्वीकार, यदि उपयोग ही न हो
जनहित का दिखावा घोषणा भर ही तो रहा है
हर समय में !
पुत्र की इच्छा प्रबल थी
यज्ञ में बैठे हुए थे द्रुपद
स्वस्तिवन्दन हो रहा था देवताओं का
आचार्य थे यज और उपयज
धूम्र से महका हुआ था यज्ञ-परिसर
मानो नृत्य अग्नि कर रहा था !
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कविता - उर्मिला - राजेश्वर वशिष्ठ
कविता का अंश...टिमटिमाते दियों से
जगमगा रही है अयोध्या
सरयू में हो रहा है दीप-दान
संगीत और नृत्य के सम्मोहन में हैं
सारे नगरवासी
हर तरफ जयघोष है ----
अयोध्या में लौट आए हैं राम !
अन्धेरे में डूबा है उर्मिला का कक्ष
अन्धेरा जो पिछले चौदह वर्षों से
रच बस गया है उसकी आत्मा में
जैसे मन्दिर के गर्भ-गृह में
जमता चला जाता है सुरमई धुँआ
और धीमा होता जाता है प्रकाश !
वह किसी मनस्विनी-सी उदास
ताक रही हैं शून्य में
सोचते हुए --- राम और सीता के साथ
अवश्य ही लौट आए होंगे लक्ष्मण
पर उनके लिए उर्मिला से अधिक महत्वपूर्ण है
अपने भ्रातृधर्म का अनुशीलन
उन्हें अब भी तो लगता होगा ----
हमारे समाज में स्त्रियाँ ही तो बनती हैं
धर्म-ध्वज की यात्रा में अवांछित रुकावट ---
सोच कर सिसक उठती है उर्मिला
चुपके से काजल के साथ बह जाती है नींद
जो अब तक उसके साथ रह रही थी सहचरी-सी !
अतीत घूमता है किसी चलचित्र-सा
गाल से होकर टपकते आँसुओं में
बहने लगते हैं कितने ही बिम्ब !
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शनिवार, 23 जुलाई 2016
कविता - भारत महिमा - जयशंकर प्रसाद
कविता का अंश... हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार
उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार
जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक
व्योम-तम पुँज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक
विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत
बचाकर बीज रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत
अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ पर हम बढ़े अभीत
सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता विकास
पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास
सिंधु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह
दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह
धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद
हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद
विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम
भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम
यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि।
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राजा दुष्यंत और शकुंतला की कथा -
कहानी का अंश... पुरु वंश में राजा दुष्यंत नामक एक प्रतापी राजा का जन्म हुआ था जो बहुत शूरवीर और प्रजापालक थे | एक बार की बात है कि राजा दुष्यंत वन में आखेट के लिए गये | जिस वन में वो आखेट खेलने गये थे उसी घने वन में एक महान ऋषि कण्व का भी आश्रम था | राजा दुष्यंत को जब ऋषि कण्व के उस वन में होने का पता चला तो वो ऋषि कण्व के दर्शन करने के लिए उनके आश्रम में पहुच गये | जब उन्होंने आश्रम में ऋषि कण्व को आवाज लगायी तो एक सुंदर कन्या आश्रम से आयी और उसने बताया कि ऋषि तो तीर्थ यात्रा पर गये हुए है | राजा दुष्यंत ने जब उस कन्या का परिचय पूछा तो उसने अपना नाम ऋषि पुत्री शकुंतला बताया |
राजा दुष्यंत को ये सुनकर आश्चर्य हुआ कि ऋषि कण्व तो ब्रह्मचारी है तो शकुंतला का जन्म कैसे हुआ तो शकुंतला ने बताया कि “मेरे माता पिता तो मेनका-विश्वामित्र है जो मेरे जन्म होते ही उन्हें जंगल में छोड़ आये तब एक शकुन्त नाम के पक्षी ने मेरीरक्षा करी इसलिए मेरा नाम शकुंतला है जब जंगल से गुजरते हुए कण्व ऋषि ने मुझे देखा तो वो मुझे अपने आश्रम में ले आये और पुत्री की तरह मेरा पालन पोषण किया ” | शकुंतला की सुन्दरता और बातो पर मोहित होकर राजा दुष्यंत ने उससे विवाह करने का प्रस्ताव रखा |शकुंतला भी राजी हो गयी और उन दोनों ने गंधर्व विवाह कर लिया और वन में ही रहने लग गये | एक दिन उन्होंने शकुंतला से अपने राज्य को सम्भलने के लिए वापस अपने राज्य जाने की इज्जात मागी और प्निशानी के रूप में अंगूठी देकर चले गये | एक दिन शकुंतला के आश्रम में ऋषि दुर्वासा आये जिस समय शकुंतला रजा दुष्यंत के ख्यालो में खोई हुयी थी जिससे ऋषि का उचित आदर सत्कार नही कर पायी जिससे क्रोधित होकर ऋषि दुर्वासा ने श्राप दिया कि वो जिसे भी याद कर रही है वो उसे भूल जाएगा | शकुंतला ने ऋषि से अपने किये की माफी माँगी जिससे ऋषि का दिल पिघल गया और उन्होंने उपाय में प्रेम की निशानी बताने पर याददाश्त वापस आने का आशीर्वाद दिया |
उस समय तक शकुंतला गर्भवती हो चुकी थी | जब ऋषि कण्व वापस तीर्थ यात्रा से लौटे तो उनको पुरी कहानी शकुंतला ने बताई | ऋषि ने शकुंतला को अपने पति के पास जाने को कहा क्योंकि विवाहित कन्या को पिता के घर रहना वो उचित नही मानते थे | शकुंतला सफर के लिए निकल पड़ी लेकिन मार्ग में एक सरोवर में पानी पीते वक्त उनकी अंगूठी तालाब में गिर गयी जिसे एक मछली ने निगल लिया | शकुंतला जब राजा दुष्यंत के पास पहुचे तो ऋषि कण्व के शिष्यों ने शकुंतला का परिचय दिया तो राजा दुष्यंत ने शकुंतला को पत्नी मानने से अस्वीकार कर दिया क्योंकि वो ऋषि के श्राप से सब भूल चुके थे | राजा दुष्यंत द्वार शकुंतला के अपमान के कारण आकाश में बिजली चमकी और शकुंतला की माँ मेनका उन्हें ले गयी |
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नेताजी का तुलादान - गोपालप्रसाद व्यास
कविता का अंश...देखा पूरब में आज सुबह,
एक नई रोशनी फूटी थी।
एक नई किरन, ले नया संदेशा,
अग्निबान-सी छूटी थी॥
एक नई हवा ले नया राग,
कुछ गुन-गुन करती आती थी।
आज़ाद परिन्दों की टोली,
एक नई दिशा में जाती थी॥
एक नई कली चटकी इस दिन,
रौनक उपवन में आई थी।
एक नया जोश, एक नई ताज़गी,
हर चेहरे पर छाई थी॥
नेताजी का था जन्मदिवस,
उल्लास न आज समाता था।
सिंगापुर का कोना-कोना,
मस्ती में भीगा जाता था।
हर गली, हाट, चौराहे पर,
जनता ने द्वार सजाए थे।
हर घर में मंगलाचार खुशी के,
बांटे गए बधाए थे॥
पंजाबी वीर रमणियों ने,
बदले सलवार पुराने थे।
थे नए दुपट्टे, नई खुशी में,
गये नये तराने थे॥
वे गोल बाँधकर बैठ गईं,
ढोलक-मंजीर बजाती थीं।
हीर-रांझा को छोड़ आज,
वे गीत पठानी गाती थीं।
गुजराती बहनें खड़ी हुईं,
गरबा की नई तैयारी में।
मानो वसन्त ही आया हो,
सिंगापुर की फुलवारी में॥
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खूनी हस्ताक्षर - गोपालप्रसाद व्यास
खूनी हस्ताक्षर...
कविता का अंश... वह खून कहो किस मतलब का
जिसमें उबाल का नाम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का
आ सके देश के काम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का
जिसमें जीवन, न रवानी है!
जो परवश होकर बहता है,
वह खून नहीं, पानी है!
उस दिन लोगों ने सही-सही
खून की कीमत पहचानी थी।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में
मॉंगी उनसे कुरबानी थी।
बोले, "स्वतंत्रता की खातिर
बलिदान तुम्हें करना होगा।
तुम बहुत जी चुके जग में,
लेकिन आगे मरना होगा।
आज़ादी के चरणें में जो,
जयमाल चढ़ाई जाएगी।
वह सुनो, तुम्हारे शीशों के
फूलों से गूँथी जाएगी।
आजादी का संग्राम कहीं
पैसे पर खेला जाता है?
यह शीश कटाने का सौदा
नंगे सर झेला जाता है"
यूँ कहते-कहते वक्ता की
आंखों में खून उतर आया!
मुख रक्त-वर्ण हो दमक उठा
दमकी उनकी रक्तिम काया!
आजानु-बाहु ऊँची करके,
वे बोले, "रक्त मुझे देना।
इसके बदले भारत की
आज़ादी तुम मुझसे लेना।"
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शुक्रवार, 22 जुलाई 2016
मैथिलीशरण गुप्त - पंचवटी - 13
पंचवटी का अंश... गूँजा किया देर तक उसका, हाहाकर वहाँ फिर भी,
हुईं उदास विदेहनन्दिनी, आतुर एवं अस्थिर भी।
होने लगी हृदय में उनके, वह आतंकमयी शंका,
मिट्टी में मिल गई अन्त में, जिससे सोने की लंका॥
"हुआ आज अपशकुन सबेरे, कोई संकट पड़े न हा!
कुशल करे कर्त्तार" उन्होंने, लेकर एक उसाँस कहा।
लक्ष्मण ने समझाया उनको-"आर्य्ये, तुम निःशंक रहो,
इस अनुचर के रहते तुमको, किसका डर है, तुम्हीं कहो॥
नहीं विघ्न-बाधाओं को हम, स्वयं बुलाने जाते हैं,
फिर भी यदि वे आ जायें तो, कभी नहीं घबड़ाते हैं।
मेरे मत में तो विपदाएँ, हैं प्राकृतिक परीक्षाएँ,
उनसे वही डरें, कच्ची हों, जिनकी शिक्षा-दीक्षाएँ॥
कहा राम ने कि "यह सत्य है, सुख-दुख सब है समयाधीन,
सुख में कभी न गर्वित होवे, और न दुख में होवे दीन।
जब तक संकट आप न आवें, तब तक उनसे डर माने,
जब वे आजावें तब उनसे, डटकर शूर समर ठाने॥
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मैथिलीशरण गुप्त - पंचवटी - 12
पंचवटी का अंश... पक्षपातमय सानुरोध है, जितना अटल प्रेम का बोध,
उतना ही बलवत्तर समझो, कामिनियों का वैर-विरोध।
होता है विरोध से भी कुछ, अधिक कराल हमारा क्रोध,
और, क्रोध से भी विशेष है, द्वेष-पूर्ण अपना प्रतिशोध॥
देख क्यों न लो तुम, मैं जितनी सुन्दर हूँ उतनी ही घोर,
दीख रही हूँ जितनी कोमल, हूँ उतनी ही कठिन-कठोर!"
सचमुच विस्मयपूर्वक सबने, देखा निज समक्ष तत्काल-
वह अति रम्य रूप पल भर में, सहसा बना विकट-कराल!
सबने मृदु मारुत का दारुण, झंझा नर्तन देखा था,
सन्ध्या के उपरान्त तमी का, विकृतावर्तन देखा था!
काल-कीट-कृत वयस-कुसुम-का, क्रम से कर्तन देखा था!
किन्तु किसी ने अकस्मात् कब, यह परिवर्तन देखा था!
गोल कपोल पलटकर सहसा, बने भिड़ों के छत्तों-से,
हिलने लगे उष्ण साँसों में, ओंठ लपालप-लत्तों से!
कुन्दकली-से दाँत हो गये, बढ़ बारह की डाढ़ों से,
विकृत, भयानक और रौद्र रस, प्रगटे पूरी बाढ़ों-से?
जहाँ लाल साड़ी थी तनु में, बना चर्म का चीर वहाँ,
हुए अस्थियों के आभूषण, थे मणिमुक्ता-हीर जहाँ!
कन्धों पर के बड़े बाल वे, बने अहो! आँतों के जाल,
फूलों की वह वरमाला भी, हुई मुण्डमाला सुविशाल!
इस पूरी कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
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