शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

शिखण्डिनी का प्रतिशोध - 3 - राजेश्वर वशिष्ठ

कविता का अंश... स्त्री का भाग्य हर युग में, लिखते ही रहे हैं पुरुष। चाहे वह राजपुत्री हो या ग़रीब भिखारिन, आख़िर है तो चल-सम्पत्ति ही ! हम गढ़ते हैं उन्हें प्यालों की तरह, जिनमें पी सकें जीवन का अमृत। जब चाहे तोड़ कर उठा लें, फिर नया। और वे रंगीन चमकते प्याले, रह जाएँ सदा के लिए प्यासे और अतृप्त ! जिसे हम मानव सभ्यता कहते हैं, उसमें इससे अधिक असभ्य, और क्या होगा भला? कि आप जिसे माँ कहते हैं, वह आपके वंश की क्रूरता सह कर ही, पहुँचती है इस सम्मान तक ? और आपने ही बताया है उन्हें, कि हमारी क्रूरता भी सम्मान ही है। चूँकि समाज के विधान का नियमन, हम ही करते हैं ! सत्यवती के चरणों में बैठी हैं, तीनों अपहृत कन्याएँ। जिनका विवाह किया जाना है, हस्तिनापुर के राजा विचित्रवीर्य से ! पुरोहित कर रहे हैं, विवाह कर्म की तैयारियाँ। सत्यवती प्रसन्न है भीष्म के बाहुबल पर। गंगा-पुत्र यदि अपहरण न करते, काशीराज की कन्याओं का, तो क्या होता बेचारे विचित्रवीर्य का ? पुरुष जैसा भी हो छल या बल से, पा ही लेता है सुन्दर-सुशील स्त्रियाँ। ऐसे ही बनाया है हमने अपना समाज ! अम्बा धैर्य जुटा कर कहती हैं भीष्म से, मैं प्रेम करती हूँ राजा शाल्व से। और मन से उसे मान चुकी हूँ अपना वर। कुरुवंश में आकर भी, मैं मन से नहीं हो पाऊँगी इस वंश की। आपके भाई से मेरा विवाह, धर्म-सम्मत नहीं होगा देवव्रत ! तत्काल पुरोहितों और न्यायविदों से, परामर्श लेते हैं भीष्म और सत्यवती। निर्णय लिया जाता है, कि वृद्ध ब्राह्मणों और धात्रियों के साथ, अम्बा को विदा किया जाए, राजा शाल्व के नगर के लिए ! प्रेम की यात्रा पर, हस्तिनापुर छोड़ कर, बढ़ चली है अम्बा। उसके मन में है, आशाओं और आकाँक्षाओं का डोलता समुद्र। तेज़ी से धड़क रहा है हृदय, जिसमें धीमे-धीमे बज रहा है जलतरंग, आगे बढ़ते घोड़ों की टापों के साथ ! इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...

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