गुरुवार, 1 सितंबर 2016
कविता - जग पूछ रहा मुझसे - द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
कविता का अंश...
जग पूछ रहा मुझसे पर मैं क्या बतलाऊँ,
मैं मानव हूँ बस इतना सा मेरा परिचय।
मैं कौन? कहाँ से? क्यों आया हूँ? और किधर
जाउँगा? इसका मुझको कुछ भी ज्ञान नहीं,
ढँढा अपने अंतर को मैंने बहुत, किंतु
हो सकी मुझे अपनी ही खुद पहचान नहीं।
इतना समझा हूँ मैं भी एक पथिक पथ का,
मंजिल तय करनी है मुझको कोई निश्चय।
है पंथ अपरिचित भले, किंतु मैं एकाकी
हूँ पथिक नहीं, मेरे साथी अनगिन जग में,
कुछ साथ चले, कुछ हुए साथ, कुछ से परिचय
हो गया प्राप्त चलते-चलते सँग में मग के।
हँस बोल साथ चल रहे सभी औ’ मंजिल भी
बातों ही बातों में होती जाती है तय।
जैसे तुम क्षिति-जल-पावक-गगन-पवन के इन
तत्वों से बने हुए, वैसे मेरा तन भी,
जिस भाव-सिंधु की लहरों में लहराते तुम,
उसमें ही डूबा रहता यह मेरा मन भी।
हाँ लगा-लगा गोते मैं करता रहता हूँ,
जीवन के अनुभव-रत्नों का प्रतिपल संचय।
जो है मानव की शक्ति, वही मुझमें भी है,
जो है मानव की दुर्बलता, वह भी मुझ में।
जिसमें हो केवल शक्ति न हों दुर्बलताएँ,
ऐसा मानव देखा न अभी मैंने जग में।
इसलिए भूल औ’ कमजोरी जो कुछ भी हो,
कर लेता निःसंकोच उसे स्वीकार हृदय।
वरदान मिला वाणी का मुझको थोड़ा-सा,
इसलिए बात मन की जग से कह लेता हूँ।
जग सुने या कि अनसुनी करे, परवाह नहीं;
मैं तो अपने मन को हलका कर लेता हूँ।
मेरे अंतर से जो आवाज़ निकलती है,
जग कह देता उसको मेरे गीतों की लय।
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की सहायता लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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