सोमवार, 5 सितंबर 2016

कविता - माँ – रितु गोयल

कविता का अंश... माँ, मोम सी जलती रही, ताकि घर रोशन हो सके। और सब उस रोशन घर में बैठे, सुनहरे सपने बुना करते। परियों की कहानियाँ सुना करते। माँ की तपन से बेखबर, बात-बात से खुशियाँ चुना करते, और माँ जलती जाती, चुपचाप पिघलती जाती। मुर्गे की बांग से रात के सन्नाटे तक, बाजार के सौदे से घर के आटे तक। बापू की चीख से बच्चों ी छींक तक, सपनों की दुनिया से घर की लीक तक। माँ खुद को भुलाकर बस माँ होती थी, बिन माँगी एक दुआ होती थी। माँ चक्कर घिरनी सी घुमती रही, खुद अनकही पर सबकी सुनती रही। पर जब वह उदास होती, एक बात बड़ी खास होती, वह बापू से दूर दूर रहती, पर बच्चों के और पास होती। माँ ने खुद खींची थी, एक लक्ष्मण रेखा अपने चारों ओर। इसलिए नहीं माँगा कभी सोने का हिरण, कोई चमकती किरण। माँ को चाहिए था वो घर, जहाँ थे उनके नन्हें-नन्हें पर। जिनमें आसमाँ भरना था, हर सपना साकार बनाना था। पर जब सपने उड़ान भरने लगे, दुर्भाग्यवश धरा से ही डरने लगे, और माँ वक्त के थपेड़ों से भक-भक कर जलने लगी… इस अधूरी कविता का पूरा आनंद लेने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…

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