मंगलवार, 6 सितंबर 2016
कहानी - सागर की इला - भारती परिमल
कहानी का अंश...
वह जब भी उससे दूर दूसरे शहर जाता, तो वहाँ से लौटते हुए उसके लिए कुछ न कुछ उपहार जरूर ले आता। कितनी बार उसने मना किया है कि उसे कुछ नहीं चाहिए, मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता । मैं तो तुम्हें कुछ भी देती नहीं हूँ और तुम हो कि हमेशा मेरे लिए कुछ न कुछ लाते ही हो। जवाब में वह हँस पड़ता और मुस्कराते हुए कहता - इसमें अच्छा न लगने वाली क्या बात है ? कल जब तुम भी कमाने लगो, तो मुझे कुछ न कुछ उपहार देना। तब तक मेरे दिए उपहार ही स्वीकार कर लो। फिर उसकी घनी ंजुल्फों में अपनी ऊँगलियाँ उलझाते हुए कहता - मैं कोई ऐसा-वैसा उपहार नहीं लूँगा। मुझे तो सजीव और हमेशा साथ निभाए वैसा उपहार चाहिए। वह उपहार तुम्हारे अलावा दूसरा हो सकता है भला ? इसलिए मैं तो उपहार में तुम्हें ही स्वीकार करूँगा।
आज वह उपहार देने वाला उससे मिले बिना ही दूर चला गया। इतनी दूर कि जहाँ से वापस ही न आ सके। आज उसे अपने आप पर ही गुस्सा आ रहा था कि क्या उसके लिए इंटरव्यू देने जाना इतना जरूरी था कि वह फोन पर उससे दो पल के लिए बात भी न कर सकी ।
मम्मी ने जब कहा कि इला, सागर का फोन है और वह आज काठमांडू जा रहा है, एक सप्ताह बाद लौटेगा, ले बात कर ले। तो उसने कहा-मम्मी मुझे इंटरव्यू के लिए देर हो रही है, सागर से कहना कि मैं उससे एक सप्ताह बाद ही मिल लूँगी- और हाँ जब वह वहाँ से लौटे, तो मेरे लिए कुछ न कुछ उपहार लाना भूले नहीं। यह अंतिम वाक्य उसने सागर को चिढ़ाने के लिए कहा था। इतना कहकर वह शीघ्र ही हाथ में पर्स लटकाए इंटरव्यू के लिए घर से बाहर निकल पड़ी।
वह चाहती थी कि उसे जल्दी से जल्दी कोई अच्छी सी नौकरी मिल जाए और जिस तरह सागर उसे यदा-कदा कुछ उपहार देता है, वैसे ही वह भी सागर को समय-समय पर कुछ न कुछ उपहार अवश्य दे।
सागर को उसका नौकरी की तलाश में यहाँ-वहाँ जाना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था, किन्तु वह थी कि नौकरी में ही सुख की तलाश करती। उसका मानना था कि इतना पढे-लिखे होने का क्या लाभ, जब घर में ही बैठ कर दाल-चावल पकाना और रोटियाँ ही बेलनी है। यह काम तो एक अनपढ़ महिला भी अच्छी तरह कर लेती है। सागर की इंडियन एयर लाइन्स की इस पायलट की टूरिंग सर्विस में तो वह शादी के बाद बिल्कुल बोर हो जाएगी। इसी एकांत से बचने के लिए वह नौकरी करना चाहती थी।
सागर के माँ-बाबूजी एवं भाई-भाभी सभी एक गाँव में रहते थे। वे लोग अपना पुश्तैनी मकान एवं जमीन-जायदाद छोड़ कर दिल्ली की भाग-दौड़ की ंजिंदगी में आने को तैयार नहीं थे और बहन भी शादी कर ससुराल चली गई थी। सागर यहीं दिल्ली में एक हॉस्टल में पढ़-लिख कर बड़ा हुआ और यहीं सौभाग्य से इंडियन एयर लाइन्स से जुड़ गया। कॉलेज लाइफ में उसकी और सागर की मुलाकात हुई। मुलाकात ने धीरे-धीरे प्रेम का रूप लिया और दोनों ने एक-दूसरे को जीवन-साथी के रूप में स्वीकार करने का सुंदर निर्णय लिया। यही कारण था कि अब सागर सर्विस और इला दोनोें को छोड़कर गाँव वापस जाने को तैयार न था।
इला के मम्मी-पापा भी इस बात से खुश थे और सागर के माँ-बाबूजी को भी इस बात से कोइ एतराज न था। बस, वे लोग तो यही चाहते थे कि किसी भी तरह से सागर की घर-गृहस्थी जम जाए। उन्होंने इला को देखा था। इला ने अपने मधुर व्यवहार से और सुंदर स्वभाव से उनका दिल जीत लिया था। इसीलिए तो अपनी खुशी में सभी को अपना सहभागी बनाकर वे लोग हकींकत की दुनिया से दूर अपनी इंद्रधनुषी दुनिया में जी रहे थे।
सागर की इच्छा एक साल बाद शादी करने की थी। इस बीच वह स्वाभिमानी युवक स्वयं का मकान और घर-गृहस्थी के कुछ सुविधायुक्त साधन जुटा लेना चाहता था। जिससे सुख-सुविधा में पली-बढ़ी इला को कोई तकलीफ न हो। यहीं कारण था कि प्रेम की धरती पर वे दोनों मस्त मयूर की तरह घूम रहे थे। आगे क्या हुआ? यह जानने के लिए आॅडियो की मदद लीजिए...
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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Bahut hee sunder kahani, prastutikaran aur bhi khubshoorat.
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