मंगलवार, 6 सितंबर 2016
बाल कहानी - पैसों का पेड़
कहानी का अंश…
भोलू मौज-मस्ती में जीने वाला एक लापरवाह लडक़ा था। घर पर मम्मी यदि उसे कोई काम बताती तो किसी न किसी बहाने से वह उनके सामने से गायब हो जाता। बस, दिन भर मौज-मस्ती करना और मम्मी को तंग करना, यही उसका काम था। हाँ, मम्मी से जेबखर्च माँगना वह कभी नहीं भूलता था। जब तक मम्मी उसे पैसे न देती, वह उनसे नाराज रहता और कोई बात न करता। बल्कि अपने कमरे में जाकर नाराज होकर सो जाता। उसकी इन हरकतों के कारण मम्मी प्राय: उससे कम ही बात करती।
रोज की तरह उस दिन भी भोलू ने मम्मी से पैसे माँगे। मम्मी बोली - बेटे, मैंने तुम्हें सुबह ही तो पाँच रूपए दिए थे, वह कहाँ गए? वह तो मैंने खर्च कर दिए- भोलू लापरवाही से बोला।
- तो फिर तुम्हें दूसरे पैसे नहीं मिलेंगे, लेकिन भोलू ने पैसे लेने की जिद पकड़ ली कि मुझे तो पैसे चाहिए ही। तब मम्मी ने थोड़ा डाँटते हुए और थोड़ा समझाते हुए कहा - देखो, भोलू। पैसे कोई पेड़ पर तो उगते नहीं है, कि जब चाहो तब तोड़ लो।
भोलू तो अपनी बात पर ही अड़ा रहा कि मुझे तो किसी भी हालत में पैसे चाहिए ही। मुझे और कुछ नहीं सुनना है। भोलू की जिद को देखते हुए मम्मी ने इच्छा न होते हुए भी चुपचाप उसके हाथ में पाँच रूपए का नोट रख दिया। भोलू पैसे लेकर घर से बाहर निकल गया। सामने अमरूद का पेड़ था। उसकी डालियों पर ताजे-ताजे अमरूद लटक रहे थे। भोलू सोचने लगा - काश, अमरूद की तरह यदि पैसों का पेड़ होता तो? और उसने पैसों का पेड़ उगाने का निश्चय किया, लेकिन क्या पैसों का पेड़ भी उगाया जा सकता है भला? उसने कभी पैसों के पेड़ के बारे में नहीं सुना था और न ही किसी के घर पर उसने पैसों का पेड़ ही देखा था। इसका अर्थ यह हुआ कि यह तो संभव ही नहीं है।
दूसरे ही क्षण भोलू के मन में विचार आया - क्यों संभव नहीं है? इस दुनिया में ऐसा कोई भी काम नहीं है, जो असंभव हो। हो सकता है आज तक किसी ने इस बारे में सोचा ही न हो और कोई प्रयत्न भी न किया हो। क्यों न इस अच्छे काम की शुरूआत मैं ही करू? भोलू ने बगीचे में जाकर वहाँ पर अच्छी गीली मिट्टी देखकर गड्ढा खोदा और उसमें एक रूपए का सिक्का गड़ा दिया। फिर गड्ढे को अच्छी तरह से पाट दिया। पास के नल से पानी लाकर उस पर डाल दिया। उसने तय कर लिया कि अब वह रोज उस पर पानी डालेगा और एक दिन पैसों का पेड़ उग जाएगा। फिर तो उस पेड़ की डालियों पर अमरूद की तरह पैसे उगेंगे। तब मैं उन्हें अपनी जरूरत के मुताबिक तोड़ लूँगा। बल्कि मम्मी को भी ले जाकर दूँगा। आज तक मम्मी ने मुझे जितने भी पैसे दिए हैं, मैं उसके दोगुने पैसे उन्हें लौटा दूँगा। इस तरह भोलू अपनी कल्पनाओं की दुनिया में खो गया।
अचानक ही दूसरे दिन भोलू को अपनी मम्मी के साथ नानी के घर जाना पड़ा। उसकी नानी पास के ही एक गाँव में रहती थी। गरमी की छुट्टियाँ थी, सो मम्मी तीन-चार दिन के लिए गई थी, लेकिन नाना-नानी और मौसी-मामा की मान-मनुहार के कारण वह ज्यादा दिनों तक वहाँ ठहर गई। पंद्रह-बीस दिनों बाद जब वे लोग वापस आए, तो भोलू को फिर से अपने पैसों का पेड़ याद आया। वह दौड़ते हुए बगीचे की तरफ गया। वहाँ उसने जिस जगह एक रूपए का सिक्का गाड़ा था, उस जगह को अंदाज से खोज निकाला। उसने देखा कि वहाँ तो एक बड़ा सा पेड़ उग गया था।
आगे क्या हुआ? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
लेबल:
दिव्य दृष्टि,
बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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