शुक्रवार, 30 सितंबर 2016
शिखण्डिनी का प्रतिशोध- 2 - राजेश्वर वशिष्ठ
कविता का अंश...
आसमान में छाए हैं घने बादल,
कहीं ऐरावत के शीश पर सिर रख कर,
रो रहा होगा चाँद।
स्मृतियाँ तैर रहीं हैं भीष्म के मन में,
जैसे समुद्र में तैरता है,
कोई तूफ़ान में नष्ट हुआ जहाज़।
बहुत लम्बी होगी,
जीवन की यह अन्तिम-यात्रा !
भीष्म के कान सुनते हैं,
अपने आसपास हंसों की चहल-कदमी,
ये ऋषिगण हैं जिन्हें भेजा है माँ गंगा ने,
इस रूप में।
अपने धर्म स्वरूप पुत्र की,
प्रदक्षिणा करने के लिए।
हिमालय पुत्री गंगा,
अब धरती पर लौट नहीं सकती,
अपने पुत्र का सिर स्पर्श करने के लिए !
भीष्म की बन्द पलकों में,
झाँकती है माँ गंगे।
अब भी वे उसी तरह पकड़े हैं माँ का आँचल,
जैसे कभी उन्हें सौंपा था,
स्वर्ग लौटती गंगा ने महाराज शान्तनु को !
वह सोचते हैं-
काश, इन क्षणों में,
माँ, तुम होती मेरे पास।
मैं खोलता हृदय की एक-एक गाँठ,
मृत्यु का क्या है, पिता के वरदान से,
वह तो सदा ही मेरे अधीन है।
मुझे तो उसकी प्रतीक्षा करनी ही होगी,
सूर्य के उत्तरायण में आने तक !
माँ, धर्म स्वरूप भीष्म ने भी,
कई बार किया धर्म का तिरस्कार।
उसे देनी चाही नई परिभाषा,
पर माँ, वह तो मेरा अहम् था,
उससे कैसे पारिभाषित होता धर्म ?
माँ सत्यवती की प्रसन्नता के लिए,
भाई विचित्रवीर्य के गृहस्थ के लिए,
मैंने किया काशी नरेश की तीन पुत्रियों का,
स्वयंवर से अपहरण।
अपने राजमद में चूर होकर,
क्या यह न्यायोचित था ?
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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