शनिवार, 3 सितंबर 2016
बाल कहानी – सच्चा खज़ाना
कहानी का अंश…
एक छोटा सा गाँव। उसमें एक किसान रहता था। उसका नाम रामजी भाई था। रामजी भाई बहुत सुखी थे। उनके चार बेटे थे। बड़े दो लडक़ों के नाम क्रमश: लाखा और लक्ष्मण थे। छोटे दो लडक़ों के नाम थे सांगा और श्रवण। रामजी भाई का खेत गाँव के पास में ही था। वे बड़े मेहनती किसान थे। हर वर्ष अपने खेत को नियम से जोतते थे। बुआई के लिए अच्छे बीजों का इस्तेमाल करते थे। खेत की निंदाई-गुड़ाई भी भलीभाँति करते थे। उनकी फसल हर साल बहुत अच्छी होती थी। घर में अनाज की चार-चार कोठियाँ अलग-अलग अनाजों से भरी रहती थी। उन्हें किसी भी तरह का कोई दु:ख नहीं था, परंतु एक बात की चिंता हमेशा रहती थी। स्वयं रामजी भाई जितने परिश्रमी थे, उनके चारों बेटे उतने ही आलसी थे। मानों आलसी के सरदार! खुद कुछ काम करते ही नहीं। गप्प लड़ाते या चौपड़ खेलते। रामजी भाई जबरन काम करवाते तभी वो काम करते। इसी तरह बरसों बीत गए। एक बार रामजी भाई बीमार पड़े। बीमारी लंबी चली। रामजी भाई को लगा कि अब वो ज्यादा दिन नहीं जी पाएँगे। उन्होंने एक रात चारों लडक़ों को अपने पास बुलाया और बोले- बेटे लाखा, लक्ष्मण, सांगा, श्रवण, मुझे लगता है कि अब मैं ज्यादा जी नहीं पाऊँगा, तुम चारों भाई मिलजुल कर रहना। हर वर्ष खेत की जुताई करना। हमारे सिर पर किसी का कर्ज नहीं है। घर की चारों कोठियाँ अनाज से भरी हुई है। तुम चारों यदि आलस त्याग कर काम करोगे तो कभी भी मुसीबत में नहीं पड़ोगे। उसके बाद भी यदि कभी किसी तरह की परेशानी आती है, तो घबराना नहीं। मैं ने अपने खेत में डेढ़-दो हाथ की गहराई पर चार घड़े गाड़े हैं। उसमें रुपए भरे हैं। तुम चारों उसे इस्तेमाल करना। किंतु बापू ये घड़े कहाँ पर गड़े हैं? सांगा ने पूछा। बेटा- बरसों पहले गाड़े हैं। कहाँ पर है, अब इस बात को भूल गया हूँ- रामजीभाई ने सांगा की ओर देखते हुए कहा। दो दिन बाद रामजी भाई स्वर्ग सिधार गए। अब उन चारों को राह दिखाने वाला कोई न रहा।
चारों सुबह नाश्ता करके घर से बाहर निकल पड़ते। किसी की दुकान पर बैठते, किसी के घर में बैठते। कभी चबूतरे पर बैठते, तो कभी पंचायत में बैठते। जहाँ जाते वहाँ गप्पबाजी करते और दोपहर को घर आते। दोपहर का भोजन करते और सो जाते। शाम को चार बजे के आसपास उठते और फिर कहीं चौपाल-चबूतरे पर बैठ कर हंसी-ठिठोली, गप्पबाजी करने बैठ जाते। रात का भोजन कर फिर थोड़ी देर इधर-उधर की बातें कर सो जाते। फिर सुबह होती और फिर से वही दिनचर्या। वैशाख-जेठ में सभी किसान अपने खेतों में हल चलाते। इन चारों भाइयों ने एक दिन आपस में बात की - लाखा ने कहा - भाई सांगा, अब तो हमें भी कल से खेत में हल चलाना चाहिए। सांगा बोला - परंतु लाखा भाई, इसमें इतनी जल्दी क्या है? अभी तो चारों कोठियों में अनाज भरा हुआ है। एक वर्ष तो आराम से गुजर जाएगा। अगले वर्ष देखा जाएगा। छोटे श्रवण ने भी बड़े भाई का पक्ष लिया और कहा- हाँ, भाई, सांगा की बात सच है। घर में कोठियाँ भरी हुई हो, तब तो कोई मूर्ख ही होगा जो मजदूरी करेगा। बेवजह खेत जोतने की और मजदूरी करने की क्या जरुरत है? चारों ने मिलकर तय किया कि इस वर्ष खेत पर नहीं जाएँगे। आगे क्या हुआ? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
लेबल:
दिव्य दृष्टि,
बाल कहानी
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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