मंगलवार, 6 सितंबर 2016
दो कविताएँ - वर्तिका नन्दा
कविता का अंश... सच...
कचनार की डाल पर,
इसी मौसम में तो खिलते थे फूल।
उस रंग का नाम,
क़िताब में कहीं लिखा नहीं था।
उस डाल पर एक झूला था,
उस झूले में सपने थे,
आसमान को छू लेने के,
उस झूले में आस थी,
किसी प्रेमी के आने की,
उस झूले में बेताबी थी,
आँचल में समाने की,
पर उस झूले में सच तो था नहीं।
झूले ने नहीं बताया,
लड़की के सपने नहीं होते,
नहीं होने चाहिए।
उसे प्रेम नहीं मिलता,
नहीं मिलना चाहिए।
क़िताबी है यह और बेमानी भी।
झूले ने कहाँ बताया?
ज़िंदगी में अपमान होगा,
और प्रताड़ना भी।
देहरी के उस पार जाते ही,
पति के हाथों, बेटों के हाथों।
इस अधूरी कविता का पूरा आनंद लेने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि

सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Post Labels
- अतीत के झरोखे से
- अपनी खबर
- अभिमत
- आज का सच
- आलेख
- उपलब्धि
- कथा
- कविता
- कहानी
- गजल
- ग़ज़ल
- गीत
- चिंतन
- जिंदगी
- तिलक हॊली मनाएँ
- दिव्य दृष्टि
- दिव्य दृष्टि - कविता
- दिव्य दृष्टि - बाल रामकथा
- दीप पर्व
- दृष्टिकोण
- दोहे
- नाटक
- निबंध
- पर्यावरण
- प्रकृति
- प्रबंधन
- प्रेरक कथा
- प्रेरक कहानी
- प्रेरक प्रसंग
- फिल्म संसार
- फिल्मी गीत
- फीचर
- बच्चों का कोना
- बाल कहानी
- बाल कविता
- बाल कविताएँ
- बाल कहानी
- बालकविता
- भाषा की बात
- मानवता
- यात्रा वृतांत
- यात्रा संस्मरण
- रेडियो रूपक
- लघु कथा
- लघुकथा
- ललित निबंध
- लेख
- लोक कथा
- विज्ञान
- व्यंग्य
- व्यक्तित्व
- शब्द-यात्रा'
- श्रद्धांजलि
- संस्कृति
- सफलता का मार्ग
- साक्षात्कार
- सामयिक मुस्कान
- सिनेमा
- सियासत
- स्वास्थ्य
- हमारी भाषा
- हास्य व्यंग्य
- हिंदी दिवस विशेष
- हिंदी विशेष
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें