सोमवार, 5 सितंबर 2016
कहानी – पुरबिनी दादी – डॉ. रेणु शर्मा
कहानी का अंश…
पुराने खंडहर जैसे बने दुमंजिले मकान में पुरबिनी दादी अपने सैनिक रहे पति के साथ रहती थीं। धीरे-धीरे दोनों जीवन की उस दहलीज पर खड़े थे, जहाँ कमर झुक जाती है, बाल पक कर सफेद हो जाते हैं, चेहरा झुर्रियों से ढँक जाता है, शरीर दिन पर दिन शिथिल पड़ता जाता है और ऐसे समय में एक ऐसे सहारे की आवश्यकता होती है जो पत्नी पति को देती है और पति अपनी पत्नी को। और जिस मोड़ से जीवन की विदाई अति निकट मानी जाती है। मैं अक्सर अपने पिछवाड़े वाली खिड़की से उन दोनों की बातचीत सुना करती थी और कभी-कभी तो लड़ाई-झगड़ा भी इस कदर बढ़ जाता कि दादी चुपचाप ऊपर वाले कोठे पर चढ़ जाती और नीचे नहीं उतरती। बाबा नीचे से चिल्लाते, बुढ़िया नीचे आजा, मैं ऊपर नहीं चढ़ सकता। तुझे मनाऊँ कैसे? आजा मेरा हुक्का भर दे। और तब तक बुलाते रहते जब तक रोते-रोते आँखे लाल किए दादी नीचे नहीं आ जाती। हर बार की बारिश में उनके मकान का एक हिस्सा ढह जाता। ठीक वैसे ही जैसे कि उनके जीवन का अंतिम समय और पास आ गया हो। मुझसे छोटी बहन चित्रकला में पारंगत थी इसलिए मैं उससे कहती कि इनके घर का स्केच बना ले और लम्बी दाढ़ी वाले स्मार्ट बाबा का भी लेकिन खिड़की से सारे काम करना मुश्किल था। एक रोज तेज बारिश आँधी के कारण उनके घर का आगे का हिस्सा ढह गया। दोनों घर के अंदर कोठे में सो रहे थे। रात भर बेचैनी से निकाली, सुबह होते ही दौड़कर गई और जाकर देखा दोनों ठीक से तो हैं? पुराने घर का पुराना रास्ता तो ईश्वर की कृपा से बंद हो गया था। अब एक ऊँची-नीची पगडंडी बन गई थी, गिरी दीवार और आँगन के बीच। बाबा लाठी का सहारा लेकर उसी रास्ते से आया-जाया करते थे। माँ कहती, मुझे बड़ा तरस आता है। ये कभी गिर गए तो कौन सँभालेगा। लेकिन वो भी क्या करें? कभी तो बाहर गली में देखने का मन करता तो उन्हें आना पड़ता। हमारा आने-जाने का रास्ता बड़ा लम्बा था। पूरा घर पार करके जाओ तो समय लगता, इसलिए पिछवाड़े की खिड़की उन दोनों का हाल जानने के लिए काफी थी। एक दिन तेज बारिश से हमारे घर की पीछे की दीवार भी ढह गई। जिसमें खिड़की लगी थी। हम सब को तो जो खुशी मिली उसे कोई समझ नहीं सकता। घर के अन्य लोग तो चिंतित थे कि जल्दी से जल्दी दीवार बनवाई जाए। चोर-डाकुओं के लिए रास्ता खुल गया था। लेकिन हम बराबर माँ से कहते रहे कि माँ, पापाजी से कहकर पीछे एक दरवाजा निकलवा लेना। दादी को देखने में आसानी रहेगी। चूँकि माँ भी उनके लिए चिंतित थी, सो वह भी पापाजी से कहती रहती कि पीछे दरवाजा निकलवाना है। आगे की कहानी जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए…
संपर्क - sharmarenu61@gmail.com
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दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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