शुक्रवार, 2 सितंबर 2016
कविताएँ - अनंत आलोक
कविता का अंश...
कल रात भर,
मैं तन्हा ही भटकता रहा,
यादों के बियाबान जंगल में।
जंगल भरा पड़ा था,
खट्टी मीठी और कड़वी,
यादों के पेड़-पौधों से।
जंगल के बीचोंबीच उग आए थे,
कुछ मीठे अनुभवों के विशालकाय दरख़्त।
जो लदे पड़े थे, मधुर एहसासों के फूलों-फलों से।
बीच-बीच में उग आई थी,
कड़़वे प्रसंगों की तीखी काँटेदार झाड़ियाँ।
जिनके पास से गुज़रने पर,
आज भी ताज़ा हो जाती है वो चुभन,
और उछल पड़ता है दिल।
मेरे एकदम सामने बैठी,
जुगनुओं जड़ी चादर ओढ़े,
मनमोहक, साँवली-सलोनी निशा,
नींद की बोतल से भर भर,
नैन कटोरे,
पिलाती रही मुझे,
रात रस।
लेकिन मैं बहका नहीं,
बढ़ता ही गया आगे,
और आगे...
इस अधूरी कविता के साथ अन्य कविता का पूरा आनंद लेने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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