गुरुवार, 1 सितंबर 2016
कहानी - मन भर धूप - भारती परिमल
कहानी का अंश...
सुबह-सवेरे द्वार पर मेरे किरणों ने तिलक लगाया और खुली खिड़की से होता हुआ सूरज का सातवाँ घोड़ा कमरे में आया। हॉल की हर दीवार धूप से नहा गई और ठिठुरती ठंड में एक ऊर्जा शरीर में भर गई। पिताजी हॉल की आराम कुरसी पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे। सूरज की ऊर्जा का यह उपहार सबसे पहले उन्हें ही मिला। माँ, पूजा के कमरे में दीया-बाती कर रही थी। वह भी जल्दी से अपनी पूजा निपटा कर धूप से मिलने हॉल में आ गई।
श्वेता और स्मित भी स्कूल जाने के लिए तैयार हो रहे थे। जैसे ही हॉल में धूप का साम्राज्य देखा कि जल्दी-जल्दी बैग में कॉपी-किताबें जमाते हुए जूते-मोजे लेकर वहीं आ गए। पाँच मिनट बाद डायनिंग टेबल की उस कुरसी पर बैठने के लिए झगड़ने लगे, जहाँ पर ज्यादा धूप आ रही थी। उनकी इस नोंक-झोंक से न तो दादा को मतलब था और न ही दादी को। दादा अखबार में उलझे हुए थे और दादी आँख बंद किए, हाथ में माला लेकर उसके मनके फेरते हुए मंत्रों का जाप कर रही थी। शांतनु को तो इस दिनचर्या से कोई मतलब था ही नहीं, वह तो बेडरूम में अपनी रजाई को सिर पर तानकर करवट बदल कर सो गए थे। आखिर उनका ऑफिस साढ़े दस बजे था। अभी आधा घंटा और सोया जा सकता था। इसलिए वे एक-एक मिनट का पूरा फायदा उठाना चाहते थे।
अब अकेली बची मैं! मुझे तो सुबह के काम निपटाने थे। श्वेता-स्मित का नाश्ता और टिफिन तैयार करना था, शांतनु के लिए लंच की तैयारी करनी थी और माँ-पिताजी के लिए चाय बनानी थी। इन सारी तैयारियों के बीच टंकी में पानी भरने के लिए मोटर ऑन करना, कामवाली बाई को रात के जूठे बर्तन देना, पौधों में पानी डालना, दूध लाना, हीटर ऑन करना, कमरे की सफाई करना, दोनों बच्चों का बिखरा हुआ सामान समेटना…. बाप रे बाप! काम की एक लंबी सूची थी, जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। जितना दिमाग पर जोर डालो, सूची उतनी ही लंबी बनती चली जा रही थी।
मैं सूरज, रोशनी, धूप, किरणें, उजाला, प्रकाश, आलोक, ये सारे स्फूर्तिमय पर्याय भूलकर सिर पर लगे टोप से कान को अच्छी तरह से ढँकते हुए फिर काम में लग गई। दिसम्बर का महीना था। ठंड अपने पूरे शबाब पर थी। वह दरवाजे पर लगा किरणों का तिलक, कमरे में आता सूरज का सातवाँ घोड़ा और धूप से नहाती दीवारों से ही ऊर्जा लेकर मैं अपने काम में डूब गई। डूबती क्या न करती? नहीं तो सारी दिनचर्या अस्त-व्यस्त हो जाती। चाय-नाश्ता, टिफिन-लंच, रोज के काम इनसे फुरसत पाना संभव ही नहीं। मन को समझाया - दोपहर तक घर के सारे काम निपटाकर थोड़ी धूप सेंक लूँगी और धूप में लेटे-लेटे आराम कर लूँगी। मगर मैं जानती हूँ, ऐसा हो नहीं पाएगा। आज दोपहर को तो चाची के यहाँ सुंदरकांड का पाठ है। मुझे और माँ को वहाँ जाना है। नहीं जाऊँगी तो कहने को हो जाएगा कि आजकल की औरतों को किटी पार्टी में जाने की फुरसत होती है, पर भजन-कीर्तन में आने की नहीं। ऐसे ताने सुनने से तो अच्छा है कि धूप को ठेंगा दिखाओ और सुंदरकांड करने में मन लगाओ। चलो, काम निपटाओ।
इस अधूरी कहानी को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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