शुक्रवार, 9 सितंबर 2016
लघु कथा – अंकुर – आशीष त्रिवेदी
कहानी का अंश…
ज़ोहरा अधिकांश समय गुमसुम रहती थी. किसी से ना मिलना ना जुलना. बस काम से मतलब. इस उम्र में ऐसी संजीदगी सभी को अखरती थी. भाईजान ने कितनी बार समझाया ज़िंदगी किसी के लिए रुकनी नही चहिए. लेकिन वह तो जैसे कुछ समझना नही चाहती थी. कभी जिसकी खिलखिलाहट सारे मोहल्ले में गूंजती थी अब बिना टोंके उसके मुंह से एक लफ़्ज नही निकलता. अपनी लाडली बहन की इस दशा पर भाईजान के सीने में आरियां चलती थीं. गांव के छोटे से स्कूल में टीचर थी ज़ोहरा. छोटे बच्चों का साथ उसे अच्छा लगता था.
भाईजान ने पढ़ने के लिए उसे शहर के कॉलेज में भेजा था. वहाँ उसकी मुलाकात इरफान से हुई. इरफान बाकी लड़कों से अलग था. सबकी तरह उसका मकसद पढ़ लिख कर एक अच्छी नौकरी पाना नही था. अपने आस पास के माहौल में व्याप्त भ्रष्टाचार, अशिक्षा अन्याय तथा इन सबके प्रति युवा वर्ग की उदासीनता को लेकर वह बहुत दुखी था. इस पूरी व्यवस्था को बदल देना चाहता था. उसके क्रांतिकारी विचारों से वह उसकी तरफ आकर्षित हो गई. यह आकर्षण समय के साथ प्रेम में बदल गया.
इरफान ने छात्र राजनीति में कदम रखा. वह तेजी से आगे बढ़ने लगा था. भ्रष्टाचार और अन्याय के विरुद्ध उसकी आवाज़ और भी मुखर हो गई थी. यह बात बहुत से लोगों को गंवारा नही थी. अतः उस आवाज़ को शांत कर दिया गया.
ज़ोहरा टूट गई. वह वापस गाँव आ गई. यहाँ गाँव के स्कूल में पढ़ाने लगी. भाईजान ने विवाह की कोशिश किंतु वह तैयार नही हुई. उन्होंने भी प्रयास छोड़ दिया.
पूरी वादी बर्फ की सफेद चादर ओढ़े थी. इस बार ठंड भी अधिक थी. ज़ोहरा कहीं से लौटी थी. देर हो गई थी. वह जल्दी जल्दी खाना बनाने लगी. वह सोंचने लगी कि वह खाने के इंतज़ार में भूखा बैठा होगा. उसके ह्रदय में करुणा जागी. वह तेजी से हाथ चलाने लगी.
ज़ोहरा खाना लेकर गई तो देखा कि दोपहर की थाली यूं ही ढकी रखी थी. उसने छुआ भी नही था. सर से पांव तक लिहाफ ओढ़े सिकुड़ा हुआ पड़ा था. शाकिब सरकारी मुलाजिम था. नदी पर बन रहे पुल का सुपरवाइज़र. भाईजान ने उसे कमरा किराए पर दिया था. उसका यहाँ कोई नही था. नर्म दिल भाईजान के कहने पर ही उसे दोनों वक्त खाना दे आती थी. उसने बताया था कि जहाँ से वह आया है वहाँ बर्फ नही पड़ती. मौसम गर्म रहता है. इसीलिए शायद बीमार हो गया था.
अक्सर वह उससे बात करने की कोशिश करता था. लेकिन ज़ोहरा को पसंद नही आता था. वह टाल जाती थी. लेकिन आज उसे इस हालत में देख कर ज़ोहरा को अच्छा नही लग रहा था. क्यों वह नही जानती थी. वह उसकी तीमारदारी करने लगी. धीरे धीरे वह ठीक होने लगा. वह उससे अपने शहर अपने परिवार के बारे में बातें करता था. और भी कई बातें बताता था. पहले ज़ोहरा केवल सुनती रहती थी. फिर धीरे धीरे वह भी कुछ कुछ बोलने लगी. आगे की कहानी ऑडियो की मदद से जानिए...
लेबल:
दिव्य दृष्टि,
लघु कथा
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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