गुरुवार, 1 सितंबर 2016
कविता - आग जलती रहे.... दुष्यन्त कुमार
कविता का अंश...
एक तीखी आँच ने,
इस जन्म का हर पल छुआ,
आता हुआ दिन छुआ,
हाथों से गुज़रता कल छुआ,
हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,
फूल-पत्ती, फल छुआ,
जो मुझे छूने चली,
हर उस हवा का आँचल छुआ !
...प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता
आग के सम्पर्क से,
दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में,
मैं उबलता रहा पानी-सा,
परे हर तर्क से।
एक चौथाई उमर,
यों खौलते बीती बिना अवकाश ,
सुख कहाँ,
यों भाप बन-बनकर चुका,
रीता,
भटकता-
छानता आकाश !
आह ! कैसा कठिन,
...कैसा मेरा भाग !
आग, चारों ओर मेरे
आग केवल आग !
सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोयी-;
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
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कविता,
दिव्य दृष्टि

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