बुधवार, 14 सितंबर 2016

कविता - आचार्य संजीव सलिल - हिंदी दिवस विशेष - 2

कविता का अंश... अपना हर पल है हिंदीमय... अपना हर पल है हिन्दीमय, एक दिवस क्या खाक मनाएँ? बोलें-लिखें नित्य अंग्रेजी जो वे एक दिवस जय गाएँ। निज भाषा को कहते पिछडी, पर भाषा उन्नत बतलाते, घरवाली से आँख फेरकर देख पडोसन को ललचाते। ऐसों की जमात में बोलो, हम कैसे शामिल हो जाएँ? हिंदी है दासों की बोली, अंग्रेजी शासक की भाषा. जिसकी ऐसी गलत सोच है, उससे क्या पालें हम आशा? इन जयचंदों की खातिर, हिंदीसुत पृथ्वीराज बन जाएँ ध्वनिविज्ञान- नियम हिंदी के शब्द-शब्द में माने जाते। कुछ लिख, कुछ का कुछ पढने की रीत न हम हिंदी में पाते । वैज्ञानिक लिपि, उच्चारण भी शब्द-अर्थ में साम्य बताएँ। अलंकार, रस, छंद बिम्ब, शक्तियाँ शब्द की बिम्ब अनूठे। नहीं किसी भाषा में मिलते, दावे करलें चाहे झूठे। देश-विदेशों में हिन्दीभाषी, दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाएँ। इस अधूरी कविता का पूरा आनंद लेने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...

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